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टूटे अक्षरों का विलाप

tute akshron ka wilap

कैलाश वाजपेयी

कैलाश वाजपेयी

टूटे अक्षरों का विलाप

कैलाश वाजपेयी

और अधिककैलाश वाजपेयी

    भद्दी दिनचर्या और दुखते एकांत को

    साथ-साथ जीने की ज़िद में

    हो यह गया है—कि

    अपनी ही देह से मेरा संपर्क टूट गया है

    बहते हुए जल में

    जैसे ‘कुछ जल’

    अब जिसे बहने का अभ्यास छूट गया है।

    हो यह गया है

    कि अपनी ही देह से मेरा संपर्क टूट गया है।

    जहाँ कहीं होता हूँ

    अक्सर नहीं होता हूँ

    दुपहर तक रात बनी रहती है

    और कई देशों में

    एक साथ जाग कर अपनी अनुपस्थिति पर रोता हूँ

    पता नहीं लगता अब

    इन सपाट भीड़ों से कौन घृणा करता है।

    मैं हूँ

    या वह कोई और है,

    जो किसी सुविधापरस्त छटपटाते,

    नगर की छत पर टँगे,

    दो ख़ाली कमरों में,

    किए अपराधों का दंड भोगता हुआ,

    बिना आत्मघात किए

    हर क्षण अकालमृत्यु मरता है।

    रह-रह कर स्मृति

    धोखा दे जाती है।

    धोखा दे जाती है या स्वभाव वैसा है।

    बोध नहीं होता अब,

    जो चुप हो जा कर

    लिखता चिल्लाता है

    रक्तहीन दर्द है अथवा फिर पैसा है।

    एक क़ैद होना बाहर का भी होता है

    मैं जैसे पृथ्वी के ऊपर कहीं क़ैद हूँ

    निरर्थक है वह सब जो प्राप्य है

    वह भी निरर्थक है जो अध्यास है।

    चुंबक नहीं प्रेयसी के होंठों मे

    दोस्त शतरंज है

    मैं मिल गया हूँ किन्हीं

    पिट गई गोटों में

    सागर के गर्भ में जलते चिराग़-सा

    मेरा ‘न होना’ भी झूठ गया है

    हो यह गया है

    कि अपनी ही देह में मेरा संपर्क टूट गया है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संक्रांत (पृष्ठ 24)
    • रचनाकार : कैलाश वाजपेयी
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2003

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