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तुम्हें धकिया कर मैं

tumhein dhakiya kar main

शरच्चंद्र मुक्तिबोध

शरच्चंद्र मुक्तिबोध

तुम्हें धकिया कर मैं

शरच्चंद्र मुक्तिबोध

और अधिकशरच्चंद्र मुक्तिबोध

    तुम्हें धकिया कर

    ये लो मैं बढ़ गया आगे।

    बात सिर्फ़ इतनी है

    मैं हूँ यहाँ का, तुम हो वहाँ के।

    तुम हो वहाँ के

    जहाँ पाप भी

    सौम्य हँसी हँसता है;

    और जहाँ चोर भी

    गदगद हो संत-वचन बोलता,

    नभ को गुँजाता है।

    तुम हो वहाँ के

    जहाँ सत्य

    दुम दबाकर भागता है;

    और सौंदर्य भी कहता है

    कि 'पहले दो नक़द दाम'

    तुम हो वहाँ के

    जहाँ ज्ञान

    शासकीय घोषणाओं पर

    सिर हिलाता है;

    और दंभ

    जहाँ शास्त्र खोलकर

    नीति के पाठ पढ़ाता है।

    तुम हो वहाँ के

    जहाँ प्रेम

    छिछली चेष्टाओं में

    आँखें मिचकाता है;

    और जहाँ कला

    चाँदी की झनकारों पर

    कमर लचकाती है।

    तुम हो वहाँ के विशिष्ट

    लाडले, सुकुमार, नाज़ुक मिज़ाज

    मैं हूँ यहाँ का, सब का

    मेरी हँसी भी तेज़ और कड़वी है

    तुम्हें आहत किया और

    मेरे तेजस्वी जख़्म चमक उठे

    और उनकी छाया ऊँची,

    बहुत-बहुत ऊँची फैल गई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 209)
    • रचनाकार : शरच्चंद्र मुक्तिबोध
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1965

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