ग़ैर मुनासिब है यह वक्तव्य
जून 2002।
दुःस्वप्नों से घिरे
गुजरात के दंगापीड़ित बच्चों की तरह मैं भी हूँ उद्विग्न।
अत्यंत कठिन है बच्चों के वक्तव्यों को
कविता की शक्ल में ढालना।
ये वक्तव्य
कविता के शिल्प को बना रहे हैं निरीह
और उसकी क्लासिकी हो जा रही है अर्थहीन।
क्रूर सच्चाइयाँ
कविताओं की सीमाओं को करती हैं ध्वस्त
ये जब ढलती हैं अंतर्वस्तु के रूप में
समस्त काव्य-उपादान हो जाते हैं तार-तार
यही है यह कविता
यही है इसका गंतव्य।
...
ज्वालामुखी की तरह उबल रहे हैं बच्चे
रात की सघन ख़ामोशी में
अहमदाबाद के एक धुएँ भरे कैंप में
धीरे-धीरे पसर रहा है डर।
इस ख़ामोशी के बीच
गुजरात के सहायता शिविरों में
एक लाख़ से अधिक पीड़ित मुसलमानों के बीच
दुःस्वप्नों को और भी भयावह बनाने वाली स्थितियों में
घिरे हुए हैं बयालिस हज़ार बच्चे।
अकेले अहमदाबाद के शिविरों में डरे-सहमे हैं
तीस हज़ार बच्चे।
”गुजरात के दंगो से
बचे हुए बच्चों में
उसी तरह की मानसिक उद्विग्नता
नज़र आ रही है
जैसी थी
भोपाल गैस काँड में
या कि
उत्तरकाशी के भूकंप
या फिर इसी राज्य गुजरात
के भूकंप से बचे
बच्चों में“
यह टिप्पणी है
मनोचिकित्सक डॉ. आर. श्रीनिवास मूर्ति की।
जब अहमदाबाद
की स्वंयसेवी संस्था
सेंटर फॉर डेवेलपमेंट ने
बच्चों की चित्राकला का शिविर लगाया
सभी हतप्रभ थे देखकर
कि बच्चों ने चित्र बनाए थे
धू-धू जलते मकानों के
या क्षत-विक्षत
आस-पड़ोस में बिखरे
शवों के।
मीरा मेहता कहती हैं—
“बहुत ज़्यादा ग़ुस्सा है
बच्चों में
बहुत ज़्यादा आक्रोश।
शिविरों में कई छोटे बच्चे
खेलते मिलेंगे गुमसुम।
ऊपर से लगते हैं सामान्य
भीतर ही भीतर
ज्वालामुखी की तरह
सुलग रहे हैं बच्चे।”
“आज यही काफ़ी है कि
वे बच गए हैं जीवित
इतना डर,
इतना ग़ुस्सा
घर कर गया है इनके कच्चे मन में
कि संभव नहीं है
इस घाव को भर पाना।”
दुःखी मन से कहती हैं
‘संचेतना’ की संध्या सुरेंद्र दास।
बाल्यावस्था और मासूमियत के
भयावह तरीके से ख़त्म होने की
कहानी है
यह कविता।
28 फ़रवरी 2002 की सुबह
मैं हूँ जावेद हुसैन
उम्र चौदह साल।
पिता रिक्शा चलाते थे
और माँ सिलती थी कपड़े
28 फ़रवरी 2002 को
नरोटा पाटिया, अहमदाबाद की हिंसा में
बलि चढ़ गए माँ-बाप।
रूमाल बनाने की फ़ैक्ट्री में करता था काम
फ़िलहाल—
शाह आलम कैंप में
घिरा हुआ हूँ
दुःस्वप्नों के जाल में।
याद आ रही है
28 फरवरी की सुबह
घर के बाहर उठता हुआ शोर
सबों के हाथ में था खंजर या कि त्रिशूल
पागलों की तरह चीख़ रहे थे वे
जय श्री राम!
और ‘मुसलमानों को मारो-काटो’ की आवाज़ें
उठ रही थी ऊपर।
हमने भागने की बहुत कोशिशें की
कोशिशें की बचने की
लेकिन हम कहाँ भागते,
हम कैसे बचते—
चारों तरफ घरों से
निकल रही थीं आग की लपटें—
इन्हीं लपटों के बीच
मैं खड़ा था
अपनी गर्भवती चचेरी बहन के साथ
ठीक दो महीने बाद
इस धरती पर आने वाला था एक नया नागरिक।
दंगाई उसे भी घसीट ले गए—
वह चीख़ती रही
चिल्लाती रही—
करती रही फ़रियाद—
होने वाले बच्चे की माँगती रही सलामती
एक न सुनी किसी ने—
ठीक मेरे सामने
तलवार से फाड़ दिया गया उसका पेट
और फिर धकेल दिया गया
आग की लपटों में
डरा-सहमा मैं देखता रहा यह ख़ौफ़नाक मंजर।
फिर एक-एक कर मेरे अब्बा और अम्मी
और मेरी सत्तरह साल की बहन सोफ़िया
को झोंक दिया गया आग की लपटों में।
फिर किसी ने लोहे के रॉड से
वार किया मेरे सिर पर
और मैं बेहोश हो गया।
फिर देर रात होश आया—
मेरे चारों ओर लाशें ही लाशें बिछी थीं।
किसी तरह बचते-बचाते
रात में ही दस किलामीटर चलकर
पहुँचा फ़ैक्ट्री मालिक के पास।
वे मुझे अस्पताल ले गए
और फिर छोड़ गए इस कैंप में।
मैं डरा हुआ हूँ
सहमा हुआ हूँ
नहीं कर सकता लगातार बातें।
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी
आए थे गुजरात
उन्होंने पूछा था मुझसे हालचाल—
मेरा एक ही सवाल है उनसे—
ऐसा क्यों हुआ प्रधानमंत्री जी?
क्यों हुआ ऐसा?
मुझे अब नींद नहीं आती
मेरा नाम है मुहम्मद यासीन
उमर है आठ साल।
28 फरवरी को
मेरी माँ और छह भाई-बहनों को
जलाकर मार डाला था दंगाइयों ने।
मुझे भी झोंक दिया गया था लपटों में—
किसी तरह बचते-बचाते मैं
कूद गया पानी की टंकी में—
अधजली हालत में।
फिलहाल सूरत में अपनी बहन के पास हूँ मैं।
भूल नहीं पा रहा हूँ वह मंजर—
मेरे पिता घर में थे
उन्होंने बतलाया—
एक भीड़ आ रही है उनकी तरफ़।
हम चुपचाप एक कोने में
झुँड बनाकर बैठ गए थे।
हम सुन रहे थे लगातार
भीड़ की आवाज़—
मार दो मुसलमानों को
काट दो सालों को।
पुलिस भी थी उनके साथ—
उनके हाथों में नंगी तलवारें थीं—
उनके हाथों में जलती लुकाठी थी
भागकर मैं पहुँचा
अपने पड़ोसी, एक हिंदू के घर
जिनके बच्चों के साथ मैं खेलता था—
जिनके घर बैठकर टीवी देखता था।
लेकिन,
वहाँ का ही मंजर बदला हुआ था
उग्र भीड़ में वे भी थे शामिल
गुसाईं भाई, भवानी सिंह और गुड्डू।
फिर हम वहाँ से भागने लगे थे
लेकिन तब तक उन लोगों ने पकड़ लिया था
मेरी अम्मा को—
उन्हें घसीटकर कर दिया था
आग की लपटों के हवाले
हम भाई बहन चिल्ला रहे थे—
भाग रहे थे
और हमारी माँ ज़िंदा ही
छटपट कर रही थीं
जल रही थीं।
मुझे अब नींद नहीं आती
आँख लगते ही
डर से चिल्लाने लगता हूँ
मुझे मेरी अम्मा, अब्बा,
बहन यासीन, खज्जू, अफ़रीम, साहिल
सबकी याद आती है।
बड़ा होकर मैं भी हिंदुओं से बदला लूँगा।
उनके घर जलाऊँगा—
अब मैं उनके साथ रह नहीं सकता।
मुझे उनसे डर लगता है।
सफ़ेद टी-शर्ट और केसरिया पट्टी
जी, मैं रेशमा बानो हूँ
उमर है ग्यारह साल।
फ़िलहाल शाह आलम सहायता शिविर में हूँ।
मैं ऐसा सच बतला रही हूँ—
कि सुनकर आप भी नफ़रत करने लग जाएँगे,
उन्मादियों से।
हमले की रात के पहले दिन
पुलिस आई और गाँव के सभी लोगों को
पकड़ कर ले गई।
बीस-तीस ही बचे थे—
ज़्यादातर औरतें और बच्चे।
सुबह नौ बजते-बजते
क़रीब दो हज़ार लोगों की भीड़ जुट गई थी—
सबके-सब सफ़ेद टी शर्ट और
केसरिया पट्टी बाँधे हुए।
हाथों में खंजर और नंगी तलवारें।
सभी चिल्ला रहे थे—
मारो मियाँ को
मारो।
फिर उन्होंने पास की मस्जिद में
आग लगा दी।
वहाँ पुलिस के लोग भी थे—
आग लगाने में वे भी थे साथ।
हम चारों ओर से घिरे हुए थे।
किसी तरह दीवार फाँद कर
मैं भाग गई थी खेतों की ओर।
बाहर मैंने जो दृश्य देखा—
बतलाने में भी घबराहट हो रही है—
मेरे पड़ोस की एक सोलह साल की लड़की के साथ
दस-बारह लोग बलात्कार कर रहे थे—
वे उसे नोंच-खसोंट रहे थे।
फिर भी वह ज़िंदा थी—
फिर उन लोगों न उसके पेट को
चाकुओं से फाड़ डाला
और फेंक दिया बगल के नाले में।
किसी ने मदद नहीं की
उसकी।
मैं भी कैंप में, डरी हुई हूँ।
लेकिन, बड़ी होकर मैं
मदद करूँगा—इस तरह जो
घिरे होंगे संकटों में।
हिंदुओं के साथ अब नहीं रह सकता
सातवें दर्जे में पढ़ रहे
यासमीन सिकंदर खान
की उम्र बारह साल की थी।
उसकी माँ और बड़े भाई
की निर्मम हत्या
कर दी गई थी गुलबर्ग में।
वह बतलाता है—
उसका घर गुलबर्ग में
एक भूतपूर्व काँग्रेसी एम.पी.
एहसान जाफ़री के घर के पास ही था।
28 फ़रवरी की सुबह-सुबह
बाहर हल्ला हुआ और
उसके घर पर पत्थरों की बरसात होने लगी।
हम जाफ़री साहब के घर की ओर
अपनी सुरक्षा के ख़्याल से भागे—
लेकिन,
वहाँ पहले से ही भीड़ जमा थी।
फिर वह भीड़ हमारे घर में घुस आई
मेरे भाई सलीम को पकड़ लिया—
और तलवार से उसका सिर फाड़ दिया।
अब्बा! अब्बा! चिल्ला रहा वह
और वहीं फ़र्श पर ढेर हो गया।
फिर भीड़ ने घर में आग लगा दी
मैं किसी तरह बचते-बचाते
छत पर भाग निकला।
मेरी माँ घिर गई थी
आग की लपटों में।
पाँच-छह घँटों बाद
पुलिस आई
और मुझे बाहर निकाला
मैं जले हुए मकानों में
अम्मी को ढूँढ़ता रहता हूँ—
मैं अब हिंदुओं के साथ नहीं रह सकता।
हिंदू भी नहीं चाहते कि
मुसलमान हिंदुस्तान में रहें।
प्रतिहिंसा की आग उठ रही मेरे अंदर
जी, मेरा नाम शेर खाँ है
उमर है क़रीब तेरह साल।
मेरा बाप दर्ज़ी था और मैं
एक प्लास्टिक फ़ैक्ट्री में करता था काम—
जैसे-तैसे मैं बच गया
दंगाइयों से।
भूल नहीं पा रहा हूँ वह मंजर
बंदूक, तलवार और चाकुओं के साथ
भीड़ ‘जय श्रीराम’ का नारा लगा रही थी।
उनके साथ चल रही थी
पुलिस भी।
सबों के माथे पर
केसरिया पट्टी बंधी थी।
मुसलमानों के घरों पर
वे फेंक रहे थे पत्थर
और पेट्रोल बम।
आग के भय से मैं
भाग रहा था इधर-उधर
और अंत में
छत पर एक कोने में छिप गया था मैं।
भीड़ ने जाफ़री साहब के मकान को
बनाया था निशाना।
मैं छत की खिड़की से देख रहा था—
ग्राउंड फ़्लोर में खड़े थे जाफ़री साहब।
वह चिल्ला रहे थे—
“मारना चाहते हो तो
मुझे मारो तुम लोग—
निरीह लोगों को छोड़ दो।”
भीड़ से आवाज़ आई
जाफ़री, तुम बोलो ज़ोर से
‘जय श्रीराम’
लेकिन जाफ़री साहब चुप थे।
फिर भीड़ ने एक
जलता हुआ टायर फेंका उस पर
गिर पड़े जाफ़री साहब
और एक नंगी तलवार
घोंप दी गई उसके पेट में।
डर कर मैंने बंद कर ली आँखें।
अब मेरी आँखों में
नहीं उतरती है नींद।
प्रतिहिंसा की भावना
मार रही हैं ठाठें
मेरे अंदर।
...
आधर स्रोत-आउटलुक,
समयांतर, जून 2002
- रचनाकार : सुरेंद्र स्निग्ध
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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