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एक

क्यों यह धुकधुकी, डर,—
दर्द की गर्दिश यकायक साँस तूफ़ान में गोया।
छिपी हुई हाय-हाय में
सुकून
की तलाश।
बर्फ़ के गालों में है खोया हुआ
या ठंडे पसीने में ख़ामोश है
शबाब।

तैरती आती है बहार
पाल गिराए हुए
मीने गुलाब—पीले गुलाब 
के।
तैरती आती है बहार
ख़ाब के दरिया में
उफ़क़ से
जहाँ मौत के रंगीन पहाड़
हैं।
ज़ाफ़रान
जो हवा में है मिला हुआ
साँस में भी है।
मुंँद गई पलकों में कोई सुबह
जिसे ख़ून के आसार कहेंगे।
—खो दिया है मैंने तुम्हें।

दो

कौन उधर है ये जिधर घाट की दीवार... है?
वह जल में समाती हुई चली गई है;
लहरों की बूँदों में
करोड़ों किरनों
की ज़िंदगी
का नाटक-सा : वह
मैं तो नहीं हूँ।

फिर क्यों मुझे (अंगों में सिमिट कर अपने)
तुम भूल जाती हो
पल में ׃
तुम कि हमेशा होगी
मेरे साथ,
तुम भूल न जाओ मुझे इस तरह।

x x x

एक गीत मुझे याद है।
हर रोम के नन्हे-से कली-मुख पर कल
सिहरन की कहानी मैं था;
हर ज़र्रे में चुंबन के चमक की पहचान।
पी जाता हूँ आँसू की कनी-सा वह पल।
ओ मेरी बहार!
तू मुझको समझती है बहुत-बहुत——तू जब
यूँ ही मुझे बिसरा देती है।

ख़ुश हूँ कि अकेला हूँ,
कोई पास नहीं है—
बजुज़ एक सूराही के,
बजुज़ एक चटाई के,
बजुज़ एक ज़रा-से आकाश के,
जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर
(बजुज़ उसके, जो तुम होतीं—मगर हो फिर भी
यहीं कहीं अजब तौर से।)

तुम आओ, गर आना है
मेरे दीदों की वीरानी बसाओ;
शे`र में ही तुमको समाना है अगर
ज़िंदगी में आओ मुजस्सिम...
बहरतौर चली आओ।
यहाँ और नहीं कोई, कहीं भी,
तुम्हीं होगी, अगर आओ;
तुम्हीं होगी अगर आओ, बहरतौर चली आओ अगर।
(मैं तो हूँ साए में बँधा-सा
दामन में तुम्हारे ही कहीं, एक गिरह-सा
साथ तुम्हारे।)

तीन 

तुम आओ, तो ख़ुद घर मेरा आ जाएगा
इस कोनो-मकाँ1 में,
तुम जिसकी हया हो, 
लय हो।

उस ऐन ख़मोशी की—हया-भरी
इन सिम्तों की पहनाइयाँ 2मुझको
पहनाओ!
तुम मुझको
इस अंदाज़ से अपनाओ
जिसे दर्द की बेगानारवी3 कहें,
बादल की हँसी कहें,
जिसे कोयल की
तूफ़ान-भरी सदियों की
चीख़ें,
कि जिस ‘हम-तुम’ कहें।

(वह गीत तुम्हें भी तो 
याद होगा?)

स्रोत :
  • पुस्तक : टूटी हुई, बिखरी हुई (पृष्ठ 146)
  • संपादक : अशोक वाजपेयी
  • रचनाकार : शमशेर बहादुर सिंह
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 2004

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