मैं गीत लिख रहा होता हूँ जब
बन रहा होता हूँ, बिगड़ रहा होता हूँ
बस रहा होता हूँ, उजड़ रहा होता हूँ
कितना-कितना हँसता हूँ, कितना-कितना रोता हूँ...
जब मैं गीत लिख रहा होता हूँ!
झूठे क़िस्से कई, मन से गढ़ लिए
सूखी ऋतुएँ कई, पतझड़-सी लिए
गीली लकड़ी-सा मैं सड़ रहा होता हूँ
बेतुकी बात पर, दिन पर या रात पर
भर दुपहरी में मैं अड़ रहा होता हूँ
लफ़्ज़ बुनता हुआ, ख़याल चुनता हुआ
अनजानी-सी राह पर, बढ़ रहा होता हूँ!
बन रहा हूँ, बिगड़ रहा होता हूँ
बस रहा होता हूँ, उजड़ रहा होता हूँ
कितना-कितना हँसता हूँ, कितना-कितना रोता हूँ...
जब मैं गीत लिख रहा होता हूँ!
मैं सनक जाऊँगा, मुझसे दूर ही रहो
मैं बहक जाऊँगा, चुप रहो, चुप रहो
मैं कलाकार हूँ, मैं ही सरकार हूँ
तुम्हारे दुख में, ख़ुशी में, मैं मददगार हूँ
एहसानों की बड़ी एक गठरी लिए
हर एक माथे पे, मैं चढ़ रहा होता हूँ
बन रहा होता हूँ, बिगड़ रहा होता हूँ
बस रहा होता हूँ, उजड़ रहा होता हूँ
कितना कितना हँसता हूँ, कितना-कितना रोता हूँ...
जब मैं गीत लिख रहा होता हूँ!
गीत तैयार है, तुक बँधे ना बँधे
ना समझ आए तो, सुन लो तुम हो गधे
घोड़ा ताँगे का नहीं, हर किसी से सधे
चार जुमले क्या लिखे, कुछ सुने-अनसुने
अकड़ रहा होता हूँ, झगड़ रहा होता हूँ
बन रहा होता हूँ, बिगड़ रहा होता हूँ
बस रहा होता हूँ, उजड़ रहा होता हूँ
कितना-कितना हँसता हूँ, कितना-कितना रोता हूँ...
जब मैं गीत लिख रहा होता हूँ!
- पुस्तक : आपकमाई (पृष्ठ 47)
- रचनाकार : स्वानंद किरकिरे
- प्रकाशन : सार्थक
- संस्करण : 2017
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