आकाश में है असमय मेघ का तांडव, वायु में प्रभंजन का ताप
पश्चिम नभ में हो रहा है व्यय आशा की गहन रात्रि का आगमन
तटिनी तट में मै हूँ अकेला पथिक
ढूँढ़ रहा क्षीण आलोक की रेखा
मेरी विह्वलता को व्यंग कर बिजली का प्रकाश चमक उठता है
उसकी आड़ में व्यर्थ आशा की रात्रि आगे बढ़ रही है
शंका-मग्न सुप्त धरणी में मै अकेला यात्री ही जाग रहा हूँ
कहीं पर किसी का कंठ स्वर तक सुनाई नही देता
कोयल की कूक भी नीरव है।
केवल प्रभंजन के मंदिर स्पर्श से
जल तरंगें उछल रही हैं
घने धूलिकणों ने पथ से भटका दिया है, मार्ग दिखाई नहीं देता है
मैं अकेला यात्री त्रस्त नयन से मत्त गगन को देख रहा हूँ
सहसा विपुल प्रलय को चीरकर आनंद-ध्वनि सुनाई देती है
कौन है जो भग्न वीणा पर आलोक के आगमन को झंकृत कर रहा है
दुर्दिन को भेदकर मेरा हाथ पकड़कर
कौन मुझे राह दिखा रहा है
आँखों से मैं किसी को देख नहीं पाता, किंतु हृदय पहचान रहा है
उसी ने तो अमावस में आलोक के आगमन की रागिनी बजाई है
वह है पूर्वगामी, प्रलय पथ में वही होगा मेरा सारथी
दुर्दिन में उसकी निर्भय बाहु-डोर ही मेरा आश्रय है
उसके दुर्वार चरण-स्पर्श से
रूक्ष शैल में शतदल हँसते हैं।
वह बैठा हुआ मरण-वीणा पर जीवन का कलराग बजा रहा है
आज उसकी अभेद्य बाहु-डोर ने मुझे परिवेष्टित कर लिया है।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 98)
- रचनाकार : सुनंदकर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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