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परदार-विरति

pardar virti

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

परदार-विरति

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    141

    परपत्नी-रति-मूढ़ता, है नहिं उनमें जान।

    धर्म-अर्थ के शास्त्र का, जिनको तत्वज्ञान॥

    142

    धर्म-भ्रष्टों में नहीं, ऐसा कोई मूढ़।

    जैसा अन्यद्वार पर, खड़ा रहा जो मूढ़॥

    143

    दृढ़ विश्वासी मित्र की, स्त्री से पापाचार।

    जो करता वो मृतक से, भिन्न नहीं है, यार॥

    144

    क्या होगा उसको अहो, रखते विभव अनेक।

    यदि रति हो पर-दार में, तनिक बुद्धि विवेक॥

    145

    पर-पत्नी-रत जो हुआ, सुलभ समझ निश्शंक।

    लगे रहे चिर काल तक, उसपर अमिट कलंक॥

    146

    पाप, शत्रुता, और भय, निन्दा मिल कर चार।

    ये उसको छोड़ें नहीं, जो करता व्यभिचार॥

    147

    जो गृहस्थ पर-दार पर, होवे नहिं आसक्त।

    माना जाता है वही, धर्म-कर्म अनुरक्त॥

    148

    पर-नारी नहिं ताकना, है धीरता महान।

    धर्म मात्र नहिं संत का, सदाचरण भी जान॥

    149

    सागर-बलयित भूमि पर, कौन भोग्य के योग्य।

    आलिंगन पर-नारि को, जो करे वह योग्य॥

    150

    पाप-कर्म चाहे करें, धर्म मार्ग को छोड़।

    पर-गृहिणी की विरति हो, तो वह गुण बेजोड़॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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