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पालतू पशु

paltu pashu

एन. सुकुमारन

एन. सुकुमारन

पालतू पशु

एन. सुकुमारन

और अधिकएन. सुकुमारन

    शिथिल थे अंग उसके

    बदन अपना उसने समेट रखा था ऐसे

    प्राण निकलने को हो आतुर जैसे

    ख़ुद को सिकोड़कर

    सूँघे उसने पाँव मेरे

    देख रहा था मैं उस समय कहीं और

    दया उमड़ आई

    आँखें थी निस्सहाय उसकी

    फेंके मैंने दो शब्द उसकी ओर

    भूख मिटी पर वह नहीं हटा

    साये का मेरे पीछा करने लगा

    समय बीतने पर

    उसके पैर, मुँह और रोएँ बढ़ने लगे

    दाँत, नख उगने लगे

    आँखों में मंडराने लगा क्रोध

    डरकर इससे

    मित्रगण मेरे मिलने से बचने लगे

    बच्चे छिपने लगे

    वह और भी बढ़ा

    बढ़ते-बढ़ते

    मुझसे भी बड़ा हो गया

    दाँतों में उसकी क्रूरता चमकने लगी

    तब भी मैं रहा चुप

    यह सोचकर कि वह कुछ नहीं करेगा

    उसकी गुर्राहट से

    भंग होने लगी मेरी शांति

    उसके बिखरे रोओं और मलमूत्र से

    फैलने लगी मेरे कमरे में

    बदबू

    तंग आकर

    बाँधा उसे मैंने

    अपने आशा और विश्वासों की ज़ंजीर से

    टहलते समय

    ज़ंजीर घसीटता

    वह भी साथ मेरे चलने लगा

    हुआ जब मैं कमज़ोर

    मुझको वह खींचने लगा

    ज़ंजीर में उलझकर

    दम मेरा घुटने लगा

    फँस गया मैं

    निकलूँ कैसे

    यह चिंता बन गई मेरी नियति

    एक दिन जब मुझे लगा

    ज़ंजीर हो गई ढीली

    तो मैं हुआ बहुत ख़ुश

    चलो, अच्छा हुआ

    वह ग़ायब हो गया

    लेकिन

    मेरे मन में है

    निरंतर भय

    मुझसे कभी अलग होने वाली ज़ंजीर

    के दूसरे छोर पर

    कहीं वह अभी भी हो छिपा

    किसी अनजाने कोने में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 89)
    • संपादक : गिरधर राठी
    • रचनाकार : कवि के साथ एन. बालसुब्रह्मण्यन एवं विमल कुमार
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1994

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