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अनित्यता

anityata

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

अनित्यता

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    331

    जो है अनित्य वस्तुएँ, नित्य वस्तु सम भाव।

    अल्पबुद्धिवश जो रहा, है यह नीच स्वभाव॥

    332

    रंग-भूमि में ज्यो जमे, दर्शक गण की भीड़।

    जुड़े प्रचुर संपत्ति त्यों, छँटे यथा वह भीड़॥

    333

    धन की प्रकृति अनित्य है, यदि पावे ऐश्वर्य।

    तो करना तत्काल ही, नित्य धर्म सब वर्य॥

    334

    काल-मान सम भासता, दिन है आरी-दांत।

    सोचो तो वह आयु को, चीर रहा दुर्दान्त॥

    335

    जीभ बंद हो, हिचकियाँ लगने से ही पूर्व।

    चटपट करना चाहिए, जो है कर्म अपूर्व॥

    336

    कल जो था, बस, आज तो, प्राप्त किया पंचत्व।

    पाया है संसार ने, ऐसा बड़ा महत्व॥

    337

    अगले क्षण क्या जी रहें, इसका है नहिं बोध।

    चिंतन कोटिन, अनगिनत, करते रहें अबोध॥

    338

    अंडा फूट हुआ अलग, तो पंछी उड़ जाय।

    वैसा देही-देह का, नाता जाना जाय॥

    339

    निद्रा सम ही जानिए, होता है देहान्त।

    जगना सम है जनन फिर, निद्रा के उपरान्त॥

    340

    आत्मा का क्या है नहीं, कोई स्थायी धाम।

    सो तो रहती देह में, भाड़े का सा धाम॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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