तब भी, इस बाहुल्य में
tab bhi, is bahuly mein
तब भी,
इस बाहुल्य में
कहीं कोई कमी है—
जहाँ ‘प्रेम’ ने अपनी परिभाषा बदल ली है,
जहाँ ‘नहीं’ में भी ‘हाँ’ ही आकर बैठ गया है, और
‘नहीं छुअन’ भी अब केवल छुअन, छुअन है,
‘नहीं’ शब्द
टूटता है।
फूल के
(अ)हृदय में
राख उड़ रही है।
जो कमी है (इस भयंकर प्रेम में भी) उस प्रकाश में है जो अपने भीतर ही एक बिंदु पर आहत है, अक्षम है।
इसी एक बिंदु से (वह जो अँधेरा है) एक बिलख की आवाज़ फूटती है और मेरे कानों में सुनाई पड़ती है।
कौन है यह आवाज़? क्यों चहुँ ओर भटकती-फिरती है? अपने केंद्र से छिटक गई (?) हिरणी जो अब केवल कहानियों में मिलती है।
इस आवाज़ की देह छोटी, मुँह विकराल है। इस आवाज़ ही से मुझे जूझना है यह मुझे पता है। अब यही मेरे (कवि) कर्म की स्थली होने जा रही है।
निश्चित ही इस आवाज़ का संबंध मेरी देह से है। देह वो आँगन नहीं है जहाँ देवगण उतरते हैं और एक झुंड में इकट्ठे होकर शून्य का मनन करते हैं।
स्वयं शून्य ही नहीं हैं क्या ये देवगण? फिर भी वे उतरते हैं यदि उन्हें निश्चय कर बुलाया जाए।
यह निश्चय
देह को रौंदता है।
रौंद दी जाकर भी देह वापिस उठ खड़ी होती है। वह कड़ी है।
कड़ी, यानी बिलख, अश्रु।
ये अश्रु विरह के भी हैं जब देह स्वयं से अलग होती है, और एक अन्य देह से भी।
तब भी, क्या यह न्यायपूर्ण नहीं है?
उस आवाज़ से जूझना इस प्रश्न से भी जूझना है।
कौन पूछता है यह प्रश्न? केवल ‘मैं’ नहीं या ‘तुम’ (यह जो ‘मस्तिष्क’ है या ‘दंभ’, यह जो ‘मानस’ है)।
स्वयं देह भी यह प्रश्न पूछती है जब वह हट रही होती है। यह भी न्याय ही है।
तब भी कैसा है यह न्याय! अश्रुओं से भरा हुआ! या अश्रुओं से ख़ाली। यह प्रश्न मुझे ही क्यों पूछना था।
मेरे ही हिस्से में आना था यह मनन, देह-विहीन यह तपस्या देह की। क्या मैं भाग्यशाली हूँ कि इस दुःख के लिए केवल मुझे ही चुना गया?
देवगण मुझ पर प्रसन्न हैं, मैं उनका प्रिय हूँ। वे रातों के मौन में उतरते हैं, मेरे यहाँ आते हैं, अब मेरे दिनों को भी रातों में बदलने के लिए, मुझे इस तीखी रोशनी से बचाने के लिए, मुझे संसार से मुक्त कराने।
देह यह संसार है। प्रेम उसका उद्दात्त रूप है, पर रूप इसी का है, रूप ही बस, इसका प्रत्यक्ष, इसका प्रकटन भर।
मुझे प्रेम से मुक्त होना है, यह तय है।
प्रेम से मुक्ति काव्य से मेरी मुक्ति होगी। यह दुःख है।
काव्य प्रेम ही है। काव्य मोह है, आसक्ति। काव्य आसंग है, यानी यह संसार।
तो मैं कवि नहीं रहूँगा! यह सुख भी मुझे लौटा देना होगा? मेरा हृदय फट रहा है। चिंतित हैं देवगण। उनके चेहरों पर मेरे लिए करुणा है। यह करुणा अब मेरा भी लक्षण होने जा रही है। मेरा मन दौड़ रहा है दो उल्टी दिशाओं में। मैं बँट गया हूँ। मुझे चीरा जा रहा है स्वचिंतन की धार से। देखो मैं लथपथ हूँ। यह मेरा ही रक्त है जो बह रहा है। चिंतित हैं देवगण। चिंतित हैं और प्रसन्न हैं। मैं भी प्रसन्न हूँ। मैं तपस्या में हूँ। काव्य-चिंतन कर रहा हूँ। काव्य नहीं, काव्य-चिंतन ही मुझे मिला है। यही मेरे कर्मों का प्रतिफल है। देह को त्यागने की यही मेरी सज़ा है।
आगे
फिर वही आवाज़ है।
बार-बार आती है यह आवाज़—यह बिलख—इस पाठ में, अपनी जगह बनाने या अपनी जगह बताने, इस तरह कि जैसे यह पहले ही से उसकी जगह है, उसका न्यायसंगत स्थान। वैध, जो उसका हक़ है।
यह आवाज़ काव्य की आवाज़ है चिंतन के भीतर में, उसे काव्य-चिंतन बनाते हुए।
काव्य-चिंतन,
यानी लयपूर्ण सोच,
लयपूर्ण मनन,
या मननपूर्ण लय।
मननपूर्ण सामंजस्य, या आवर्तन क्योंकि वह आखंड है, निरंतर है और इसलिए अभग्न भी है, अभंग है।
इस तरह यह मात्र ‘होने’ से, ससीम से परे चला जाता है।
‘होने’ से परे जाना उसका देह से परे जाना है। और यही मुझे मिला है।
पर यह दुःख ही है।
यह दुःख मेरी देह का दुःख है। इन शब्दों में देह मेरी बोल रही है।
यह बोलना (या लिखना) देह का अपने ‘भीतर’ से संवाद है, अपनी ‘हस्ती’ से, अपने ‘मूल’ से जहाँ वह ‘आदि’ है, ‘आद्य’ है और इसलिए ‘अनादि’ भी है।
इस तरह देह भी चिरंतन है, अध्वन्स्य है। पर यह संसार का चिरंतन है।
देह मुक्त नहीं है। वह अपनी अमुक्ति में चिरंतन है। इसीलिए वह दुखी भी है।
इस पाठ में (और अब यही मेरा पाठ रहे होने जा रहा है) मुझे इस अमुक्ति में से निकलना है, वह आँगन बनाना है जिसमें स्वप्न नहीं है। मौन का आँगन, रोशनी और वाचालता से बचा हुआ।
इस पाठ में मुझे उस अँधेरे बिंदु को फैलाना है जहाँ से बिलख फूटती है और रोशनी से टकराती है।
यह पाठ तपस्वी है, संन्यासी है। यह प्रेम से विमुख है, पर विरह से च्युत नहीं है। न ही यह विरह दुःख है। वह दुःख से परे, उससे बड़ी है। उसकी संगिनी भी नहीं है। इस विरह का रूप विराट है, फिर भी वह मनुष्यी है, मनुष्य ही की जनी हुई है।
उसे नाम नहीं दूँगा।
उसे नाम नहीं दूँगा।
मुझे देवगणों का प्रिय बने रहना है।
आते हैं देवगण। उन्हें देख मैं फफक पड़ा हूँ।
मेरा हृदय फट चुका है, मृत्यु को पा चुका है। तब भी बिलख का अँधेरा वहाँ बना हुआ है।
नाम नहीं दूँगा।
मैं किस विरह से ग्रसित हूँ?
नाम नहीं दूँगा। मत कहो कि इसे नाम दूँ, उस विरह को जो अपना नाम छोड़ चुकी है।
उस नाम की जगह एक अँधेरा बिंदु है, एक विश्व खुला हुआ।
नाम नहीं दूँगा। मैं कैसे उसे नाम दूँ? कहाँ से लाऊँ वो औज़ार जो उस सौंदर्य को उतार लें, उसे खड़ा कर दें?
यह अलंकर्ण असंभव है।
फफक रहे हैं देवगण।
उनके गालों पर अँधेरा घिर रहा है।
जो स्पृश्य नहीं है, उसे क्या नाम दूँ? मेरी उँगलियों के पोरों पर अँधेरा है।
नाम नहीं दूँगा। मात्र इसमें रहूँगा। स्वयं देवगण मेरे लिए विह्वल हैं।
कहाँ से आते हैं?
कहाँ लौट जाते हैं?
कौन हैं वे, रोशनी में अँधेरे के समुद्र?
नाम नहीं दूँगा। मैं उन्हें नाम नहीं दूँगा। नाम देकर मैं उन्हें अपवित्र नहीं करूँगा, क्योंकि सर्वत्र नाम ही है। नाम जो कि ‘चिह्न’ है, वह जो ‘पदार्थ’ है। पद जमा अर्थ, जिस तरह वह ‘प्रेम’ में है। ‘प्रेम’ जो कि नाम ही है, एक वाचाल शब्द,
मौन
का
भंजक। नाम नहीं दूँगा। नाम बहुत रोशन है। वह सूर्य है, दिन है। उसमें
शोर है, खड़खड़ है। नाम नहीं दूँगा। नाम में दर्शन है। दर्शन, यानि ‘दंभ’। नाम नहीं देने का यह श्रम प्रेम के श्रम से कहीं ज़्यादा मुश्किल है। मुझे इस पाठ को नाम से बचाना है। इसलिए मैं इसे उस शब्द की तरह पढ़ूँगा जो कि अभी नहीं है।
- रचनाकार : रुस्तम
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.