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स्वगत-1

swagat 1

अनुवाद : राजेंद्र प्रसाद मिश्र

इस संसार के दृश्य-पटल पर—

दृश्य और अदृश्य दोनों हिस्सों में

अदृष्ट की लिपि की तरह जो टिमटिमाती शक्ति मेरे आगे है

आगे की ओर बढ़ाती है मुझे (पीछे भी खींचती है)

क्या वह सब समाज की है?

या किसी भाग्यशाली व्यक्ति का ताश-खेल है?

मेरे सपने के भ्रूण को लक्ष्य बना

प्रवेश करते हैं कुश के तीर,

उन शत्रुओं के बीच मैं स्वीकार करता हूँ—

जैसे स्वीकार करता हूँ बंधु-बांधवियों के बीच,

आत्मीय स्वजनों या चाटुकार पार्षद-गणों के बीच

रंगीन आर्ट-सिल्क का चकमक कुरता पहन पर्व-त्यौहारों में

जो भाषण देते रहे हैं

किसी जीर्ण-शीर्ण मासिक पत्रिका के

अनेक सस्ते चित्र भरे दुर्गा-पूजा अथवा दिवाली के

विशेषांकों की तरह।

मेरा यह विचित्र जगत्!

उसके तारे-भरे चन्द्राकाश में मैं मध्यम नक्षत्र तो नहीं हूँ

शायद ध्रुवतारा भी नहीं,

फिर भी तो अच्छा लगता है यह सोचना कि मैं एक

उज्ज्वल नक्षत्र हूँ,

मेरी आस्था कन्नौज से लाई गई है

कुलीन ब्राह्मण की तरह। कलिंग का अपना भले ही हो,

पर हो वह उसके मुकुट का मूल्यवान् अद्वितीय हीरा।

कुछ भी हो, मेरे इस छिन्न-भिन्न

व्यक्तित्व के चौराहे पर—

नाना कारणों के बीज, नाना दुखद कामनाएँ,

कामनाओं से उपजे दुःख दर्द के कमल।

और मेरी जीवन-व्यापी विराट् असफलताओं!

मेरी तटस्थ आत्मा के उच्चारणगण!

तुम सिर्फ़ मेरे ही हो। एकांत नक्षत्र मेरे हैं।

तुम कल-कल करती नदी हो,

भूमिका हो—

हालाँकि

हालाँकि तुम हो—

स्रोत :
  • पुस्तक : बसंत के एकांत ज़िले में (पृष्ठ 46)
  • रचनाकार : सच्चिदानंद राउतराय
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
  • संस्करण : 1990

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