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सुनो इकतारे

suno iktare

कृष्ण कल्पित

कृष्ण कल्पित

सुनो इकतारे

कृष्ण कल्पित

दीठ के आख़िरी छोर तक

जर्जर पीले पत्तों-सी पसरी

इस उजाड़ तन्हाई में

तू ही तो है

जो मेरी अँगुलियों के ताप को

पूरा पहचानता है।

तू ही तो है

जिससे घड़ी दो घड़ी

कर सकती हूँ

बात बतलावण।

तू ही तो है

इस मरे हुए पत्तों के उत्सव में

मेरे साथ पड़े वसंत को

अपने अकेले तार से

झकझोरता हुआ।

तुम्हें ध्यान नहीं है शायद

जब मैं गढ़ के लौहद्वार से

बाहर निकल रही थी

तब दरूजे के काँटे में

अटक गया था

मेरे पीले ओढ़ने का पल्ला

मैंने छुड़ाया नहीं काँटे से पल्लू

समूचा ओढ़ना ही छोड़ आई

दरूजे से लटकता।

बहुत दूर आने के बाद

जब मैंने मुड़कर देखा

ओढ़ने के पीले हाथ

हिल रहे थे

मेरी विदाई में।

बरसों बाद आज

इस पीले पतझर में

वह पीला ओढ़ना

रह-रह कर

घूम रहा है

मेरी आँखों के सामने।

स्मृतियाँ जिन्हें हम

बहुत पीछे छोड़ आते हैं

हमें पीछे ही तो नहीं लौटाती

आगे भी ले जाती है

अगर चाह हो मन में।

यह चाह ही तो है

जिसने पहराया है मुझे

ओर छोर फैला नीला ओढ़ना।

जिसे पहरकर इस घड़ी

इस वटवृक्ष से पीठ टिकाए

तुम्हें गोद में बिठाकर

गरब-गुमान से भरी

तुमसे बतलावण कर रही हूँ।

मेरे

इकलौते

बजते हुए इकतारे।

स्रोत :
  • पुस्तक : कोई अछूता सबद (पृष्ठ 20)
  • रचनाकार : कृष्ण कल्पित
  • प्रकाशन : क़लमकार प्रकाशन
  • संस्करण : 2003

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