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सुबह

subha

शालिनी सिंह

और अधिकशालिनी सिंह

    कितना सुंदर है

    सुबह का

    काँच के शीशों से झाँकना

    इसी ललछौंहे अनछुए स्पर्श से

    जागती रही हूँ मैं

    बचपन का अभ्यास इतना

    सध गया है

    कि आँखें खुल ही जाती हैं

    सुबह की मद्धिम आवाज़ पर भी

    पर इतनी ही खुलती हैं कि मेरे जागने पर

    आस-पास सब यथावत चलता रहे

    इन्हीं सुबहों में हरहरा उठता है मेरा मन

    पान की गिलौरियों-सा,

    मन की सलाइयाँ चटकी हों

    तो भी बीनने लगती हूँ

    उजली सुबह के बूटेदार सपने

    बिसर गए गीतों की धुन पर

    टेक लेते हुए

    भूल जाती हूँ

    मन में उठती हर लपक

    तिक्त मन से चाहती हूँ

    चूक गए सपनों को सहेजना

    पर देहरी से बँधे क़दम रुक जाते हैं

    हर बार

    चौखट के इस पार

    कि देह की अलबलाहट

    ख़ुद-ब-ख़ुद मन को झटक देती है परे

    ललाट पर चमक आए सपनों को

    बुहारकर रख देती हूँ पैताने

    अंततः देती हूँ ख़ुद को ही सांत्वना

    कि इतना भी अपूर्ण नहीं है जीवन

    कि अधूरी रह गई इच्छाओं के

    बारे में सोचते हुए बिता दिया जाए

    और शेष दिन को उलीच देती हूँ

    समय की अँजुली में

    मुस्कुरा देती हूँ

    खिड़की के पार दाने के लिए

    आवाज़ देती चिड़ियों के झुंड को देखकर

    सूख रहे कातर पौधों को

    देती हूँ पानी

    कि उनके हरेपन की गंध

    मेरी संततियों को हरेपन से भर देगी

    मन की हरारत देह से उतर जाती है

    दिग्ध मन डूबने से थिर जाता है

    सूरज फिर निकल आता है...

    स्रोत :
    • रचनाकार : शालिनी सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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