कितना दयनीय लगता है
बस के सफ़र में
सोया हुआ आदमी
पैंडुलम की तरह झूलती हुई उसकी गर्दन
बाईं ओर से घूमती हुई अक्सर दाईं ओर लटक जाती है
कभी-कभी टकरा जाती है अगल-बग़ल के
अपने ही जैसे अन्य सोए हुए लोगों के सिरों से
फिर कभी एक-दूसरे के कंधे का सहारा पाकर
स्थिर हो जाती है
अचानक ब्रेक लगने पर टकराती है अगली सीट से
बग़ल वाले के धकियाने या अगली सीट से टकराने पर
अपने को सँभालते हुए गर्दन को एकदम सीधा कर
बैठ जाता है वह
जैसे कुछ हुआ ही न हो
यह जतलाना चाहता है
कि वह पूरे होशो-हवाश में सफ़र का आनंद ले रहा है
लेकिन कुछ ही देर बाद
फिर आँखें बंद और गर्दन लटकने लगती है
जैसे उसके वश में कुछ भी नहीं
हो सकता है रात को पूरी नींद न ले पाया हो बेचारा
पता नहीं दुनिया के किन झंझटों फँसा रहा हो
वैसे भी इस पेचीदा दुनिया में सब कुछ कहाँ किसी के वश में
बस के भीतर होने वाले किसी भी हलचल से
अनभिज्ञ रहता है सोया हुआ आदमी—
जेब कतरा कब जेब साफ़ करके निकल गया
या कंडक्टर के बग़ल में बैठी लड़की
क्यूँ बस की सबसे पीछे वाली सीट पर जा बैठी
उसे इस बात का अहसास भी नहीं रहता है
कि बस किस गति से भाग रही है?
क्यूँ पिछले ढाबे में खाना खाने के बाद
अचानक बस की गति बढ़ गई?
नींद की गोद में बैठे
हिचकोले खाते हुए
एक अलग ही स्वप्नलोक में तैर रहा होता है वह
अपने ही दाँतों के बीच
कब जीभ आ गई
पता ही नहीं चलता उसे
माना जाता है कि किसी भी दुर्घटना में
मारे जाने की
सबसे अधिक आशंका
सोए हुए आदमी की ही होती है
फिर भी
सोए रहने में ही
सबसे अधिक आनंद पाता है
सोए रहने को विवश आदमी
उसे जगाए रखना आसान नहीं।
- रचनाकार : महेश चंद्र पुनेठा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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