जिज्ञासा
मानरहित-सा मेरा मान
अवहेलित मेरा थाह-पता
तारों के देश में उड़ता कण
किस पर गर्व करे
कितनी भर यात्रा
समुद्र में उठते बुलबुले की
पत्ते पर गिरी बूँद
कैसे मुख़ातिब हो फुफकारते दरिया से
गुलाबी महक का झोंका
कैसे बहस करे आँधियों से
आँखों में लिखी विवशता की वर्णमाला
कैसे अर्थ समझे
संगमरमर पर खुदे शिलालेख के
मैं एक अनलिखी नज़्म
एक अनगाई ग़ज़ल
क्या मान करे
महाशब्द-कोशों पर
एक लफ़्ज़ है मेरे पास, मुहब्बत
एक एहसास है मेरे पास, दोस्ती
बाढ़ को ऋतु में
न यह बेड़ी बने न मल्लाह
चेतना में गुफाओं का अँधकार
अवचेतन में सूर्यों का परिवार
रूह की मिट्टी में कौन रंग बोऊँ
कि धूप के फूल खिल पड़ें
मेरे पैरों तले
अनंत दिशाओं का केंद्र
किस दिशा की सीध लूँ
कि ख़ुद से पार हो जाऊँ
किस किरण को अर्घ्य चढ़ाऊँ
कि राख से अंगार हो जाऊँ...
गुरुदेव
हवा का कोई देश नहीं होता
अरुक वेग ही ठिकाना उसका
फूल अपने महक पर मान नहीं करते
पानी भी बेख़बर अपनी तरलता से
अनकहे बोल
लफ़्ज़ों के तलबगार नहीं होते
उड़ कर आ बैठते मौन की स्लेट पर
कोई द्वार नहीं होता
अँधकार के महल का
छतें फाड़ कर लाँघना पड़ता
प्रज्जवलित किरणों को
मुहब्बत की महक
हवा से कधा नहीं माँगती
दीवारों के अर्थ नहीं जानती
बस पहुँच जाती
एक साँस से दूजी साँस तक
किसी बिंदु से मोह पालना
ठहराव है मौत जैसा
दिशाओं की ओर पीठ करना
निरा ख़ुदकशी
विशेषणों से बेपरवाह विचरिए सहज
तो हर अँधेरी गुफा से पार हो जाते
सन्नाटे का राग सुन लेते
माथे में अग्नि-प्रज्वल
सहज हो मशाल बनती
तो दिशाएँ पैरों तले बिछ जातीं
हे सखी!
तू अपने आंतरिक सच को
प्रत्यक्ष होने से न रोकना...
- पुस्तक : महाकंपन (पृष्ठ 15)
- रचनाकार : दर्शन बुट्टर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2016
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