इतनी दूर चले आने के बाद
क्यों यह बार-बार लगता है
कि आओ फिर शुरू से शुरू करें
पर कहाँ से है शुरू
कौन-सा है वह छोर
जो होश आते न आते
हाथ से छूट गया था
कभी समुंदर के किनारे खड़े होकर लहरों की गिनती
बेमानी सपने
पूरी न होनेवाली योजनाएँ
चैत में दूर-दूर तक फैले पलाश के जंगलों के
अपने भीतर फूलने-सुलगने का एहसास
पाल उड़ाए जाती मासूम नन्ही नाव में
किसी अनजाने देश में भटक जाने की ललक
लहलहाते खेतों की मेंड़
घर की सुनसान छत या पार्क की बेंच पर,
या हॉस्टल की दीवार की आड़ में
किसी शरमाती या शोख़ लड़की का हाथ दबाना
या फिर कॉफी हाउस में उत्तेजित बहसें
चीख़ें, नारे, जुलूस, हड़तालें
सरकार या पूरी व्यवस्था को उलट देने के इरादे
गुप्त संगठनों की बैठकों में
शामिल होने की सनसनी
ग़ैरक़ानूनी परचे, हथियार
छिपे-छिपे भागे फिरने की उत्तेजना
पूरी उलटपुलट या ख़ूनी क्रांति की कल्पना—
और जाने क्या-क्या—
पर किससे है शुरुआत
कहाँ से
या कहीं कोई शुरुआत नहीं है
बस चक्कर है
किसी बड़े गोल घेरे में
इसीलिए
अब है केवल थकान
लंबे सफ़र की
ज़िंदगी की सरहद तक
अनचाही सड़कों पर भटकने का पछतावा है
और निरा मन का बहलावा है
फिर से शुरू करने की चाह...
शायद शुरुआत कहीं होती
पहुँचना यहीं था
हर शुरुआत का अंजाम यही नहीं था!
- पुस्तक : अचानक हम फिर (पृष्ठ 15)
- रचनाकार : नेमिचंद्र जैन
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 1999
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