किताब पर लकीरें खींच देने से हवा
साँस लेना नहीं छोड़ देगी
मैंने यह
इतने वर्ष बाद जाना कि मेरे
बाल पक गए :
और मेरा सिर लगातार
लगातार
लगातार होने वाली बारिश की
तरह हमेशा स्वीकारात्मक मुद्रा में
हिलने लगा।
तुम कभी भी
आश्चर्य नहीं करोगे कि मैंने
सड़क और रास्ते और चौराहे पर मुड़ते हुए
डूबते सूरज की रौशनी की तरह तुम्हारा आह्वान
क्यों नहीं किया—पर
ऐसा क्यों हुआ : मेरे देश में इस बात की
परंपरा थी कि बूढ़े होते हुए आमों की या
तो चटनी बना दी जाए या फिर उन्हें पूरी तरह
पकने से पहले ही तोड़ दिया जाए :
इतने सालों बाद मैंने
यह भी जान लिया है कि
परंपरा
कुछ भी हो उसके लिए हर शताब्दी कुछ
पर्यायवाची शब्द गढ़ देती है
मसलन
मसहरी, खाट, चारपाई, चौपाई, छुरी,
घंटी, आदत, स्वाद, चाट, आदर, सम्मान,
पुराने होने की जिघांसा या नए को सह न
पाने का आक्रोश—इन सबके
साथ कौन घिसटता है : यह भी मैंने जान लिया
है :
वह नदी में रहने वाला
जंतु नहीं है : वह न दो पैरों से चलता है :
न ही चार पैरों से धरती को खूँदता है : उसे
आसमान नापने में भी कोई रुचि नहीं है :
मैंने देखा है
उसे किताब लिखने वाले पैदा कर लेते हैं अश्लील
शोर की तरह और
वह कभी किसी
झंडे का रंग
बन जाता है कभी सड़क का शोर
और कभी तुम्हारे नाक पर बैठी हुई मक्खी :
कभी रुकी हुई बसें; कभी
आम आदमी—तुम उसे पहचानना चाहो
तो वह गुम हो जाएगा; वह तुम्हारा साथ कभी
नहीं देगा क्योंकि उसे
साँस लेती हवा
नहीं चाहिए : वह भी परंपरा का हिस्सा है जिसे
हर देश को, हर देश को
बार-बार पैदा करना
पड़ता है :
तुम्हें तकलीफ़ हो तो
तुम
अपने को परंपरा में बदल दो।
आने वाली
पीढ़ियों को यदि फ़ुरसत हुई तो वह तुम्हारी मूर्ति
चौक के बीचों-बीच खड़ी
कर देंगी और
तुम उसमें बंद होकर
फड़फड़ाना और
देखना कि हवा बहती है या नहीं और तुम्हारे पाँव
कहाँ टिके हुए हैं
धरती पर या
जूते में :
हँसने की बात नहीं है कविता में
इसी तरह से शब्दों को छुआ जाता है
नहीं तो
कविता
मुझे किताब या पत्रिका या गुट या आलोचक या पीढ़ी तक नहीं
पहुँचाएगी—देखो तुम्हारा
हँसना मुझे सख़्त नापसंद है : मुझे मरते दम तक कविता
लिखनी है :
मुझे शक है कि
तुमने परंपरा को पीटने वालों में से अपना नाम
कटवा दिया है और तुम
उस जंतु की
शिनाख़्त भूल गए हो जो किताब में लकीर खींचने
से पैदा होता है।
- पुस्तक : सोच को दृष्टि दो (पृष्ठ 38)
- रचनाकार : मोना गुलाटी
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