नभ कुपित है
कुपित है शीत लहर
सिहरा गया है बदन ज़मीन का
नंगे हैं पेड़ और पौधे
छिप गए हैं पत्ते वक़्त से पहले
धूप की खिली एक किरण-सी
कि बन गया चितकबरा यह सारा वातावरण
अरे! यह भला क्या हुआ
‘धुनकी’ उगी धीरे-धीरे देख समय का रुख
बदला रूप यथार्थ का, हुआ आलोड़न सपनों का
लगे फहराने चारों ओर शांतिध्वज
महल शोभित हो अप्सराओं का जैसे
बरसे कपास के फूल इस ओर
हुए फूल विकसित नए ढंग से
पहन लिएनए मुकुट गगनचुंबी पहाड़ों ने
लग गई शीत से कँपकँपी ग्रीष्म के बबर शेर को
किसी धनी ने तभी लगाया हीटर का प्लग
कि धुल गए काँच झरोखों के पसीनों से
लग गई आग किसी के झोंपड़े को बस यूँही
बुझ गया दीपक किसी की अँधेरी कोठरी का अभी
जर्जरित मकान को छूना पड़ता है पाँव उस आलीशान मकान
चुभने लगी सुइयाँ-सी उसकी लोहे-सी छाती में
चिथड़ा लिहाफ़ में उसकी सिमट गई सृष्टि
कि इतने में झरझरा गया तारों भरा आकाश।
- पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 107)
- संपादक : रतनलाल शांत
- रचनाकार : अबदुर्रहमान आज़ाद
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2005
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