उठते-उठते
ख़ास एक महान ऊँचाई तक
तू हो गया है स्थिर?
स्पर्धा में फ़रार पक्षी
लौट आया थककर
नीड़ तक।
धीरे-धीरे उतर गया पशु
चुन लिया गहन गुफ़ा का सब्ज़ अँधेरा
अपने को भेजने के लिए।
भिन्न-भिन्न ऊँचाई पर
पर्वतारोहियों की घाटी
स्थापित, परित्यक्त हुई कई बार;
अनिवार्य अवरोहण
नदी ढल गई नीचे की ओर
शिखर पर नहीं।
नदी क्या तेरा हल है
या सागर का ओछा चतुर षड्यंत्र
कौन जाने
ऐसे संपर्क का
आख़री समझौता नहीं कि अंत नहीं।
उस महान ऊँचाई पर
स्थिरता-सा स्थिर बन गया,
आकाश छूने
और कितनी राह बाक़ी थी?
फटकर छूटने से पहले
शिला में बंद झरने की आत्मा
और
गुफ़ा में पशु की
अद्भुत सिद्धि का तू प्राक-फल खा तमतमाया
पर्वत !!
खोल दो ना
सशरीर स्वर्ग पहुँचने का पथ?
सदा केवल दूरी और शीतलता
अप्राप्ति, पतन और पराजय?
मृत्यु और शून्य ही तेरा शिखर?
स्थितिहीन तू चिर कठिन, कठोर।
जितनी करोड़ प्रतिध्वनि
तूने बो दी हैं चारों ओर
सहेजकर सबको
एक बार क्यों नहीं गरज उठते
प्रबल नाद में ?
तू क्या मथ जाएगा पृथ्वी को
स्थिरता के बीच?
हर रंग ध्वनि का महाचित्र
ओंकार और महानीरवता
जहाँ लकड़ी काटना,
कहीं वृक्षपरी,
कहीं किशोरी पार्वती के चरण-स्पर्श
कहीं सूर्योदय,
कहीं सूर्यास्त
कहीं अँधेरा,कहीं चाँदनी
निदाघ, शरत, श्रावण...
मेघ आते पूरब पश्चिम
ईशान नैऋत से
कभी झरती चित्रधारा
कभी रोम-रोम से तुष-सी बरसा झरती
सूरज छुपता नहीं किसी की ओट में
ज़रा-सा मेघ, मेघ के बीच में
तमाम शून्य फीकी धूप
बूँद-बूँद स्फुलिंगित मेघमाया ज्योतिक्रीड़ा
बेशुमार छींटे इंद्रधनु अणु-अणु में...
एक-एक अनोखे पल में
तुझे भी मथता है
कोई अदृश्य सूक्ष्म मंदर ?
होने और रहने के बीच
कठोरता में तरंग
नाचती—
तरलता में वाष्पायन हो जाता...
सब खिल जाता स्फटिक में...
वायु में स्थिर चक्षु
शिखा की ओट में आत्माश्म तू, पर्वत !
आशा तू, आनंद तू
मृत्यु अन्न जागरण तपाचरण
प्रेम परम मौन !
पक्षी थककर
लौट आता
परंतु
फिर एक बार उड़ जाता।
ऊँचाई जिसकी पता है
वहाँ पहुँचा जा सकता
शिखर तक।
अचानक एक आर्ष ज्योति में
उज्ज्वल जाता पशु,
गुहा में से सुनाई देता :
अयमहं भो
कितना अद्भुत
कितना उच्च्छास-भरा यह परिचय—
वह अपना, अपने साथ!
डूबते डूबते मर जाना और
उड़ते-उड़ते उठ जाना।
दोनों भाव
अनुभूत होते एक साथ
एक घट में!
आ, जाग उठ पर्वत !
आ
कृष्ण की वंशी,
शांब का मूसल,
शिवलिंग, हलधर का हल
निहार, मुदगर,
तूली, कलम और तलवार
स्थिर निःस्वन, विस्फोरण,
महान नृत्यमुद्रा
फल के बीज,
बीज में अणु बीज
मेघ-मुकुट, सिंह- ध्वनि,
पौरुष, प्रण
त्रिवार सत्य कहना
आदिम स्पर्धा,
युगों का दंभ
फ़र्श और शिखर,
स्थलभाग बहुत
सागर जिसका आधेय भर
हुताशन जिसके गर्भ में,
पर्वत।
महाशून्य की पृथ्वी तू
खूब सुंदर तू,
अभंगुर, अद्भुत कल्लोल...
तेरा शिखर !
मृत्यु हो या अमरत्व हो वहाँ
शिखर मात्र ही आरोह्य !
देख, देख
ईश्वर के उठे हाथ को
अँगुली पर
गोवर्धन की तरह तू
और गोवर्धन शिखर के उच्चतम बिन्दु पर
दो कोमल किशलय-सा मैं
स्थिर खड़ा हूँ!
हाँ
इतनी निर्दिष्ट ऊँचाई पर
मैं स्थिर हो गया।
अनिवार्य बज्र की प्रतीक्षा करता हूँ।
- पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 200)
- संपादक : शंकरलाल पुरोहित
- रचनाकार : राजेन्द्र किशोर पंडा
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2009
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