शेष कातिक के भिनसारे की
नक्षत्रस्नात स्वप्नभोगी
नींबू रंगी पूड़े-भर दूब की तरह,
शेष फागुन की रात के अंतिम पहर की
रति-धौत कामुक
बद्धांजलि हवा की तरह,
शेष पूस के पवित्र लग रही
सुबह की ओस से भीगी माटी पर
टिकी पड़ी स्नेहसिक्त
धान के गट्ठे पर लोट-पोट
हो रही पूस की आलसी किरण की तरह,
विध्वंस सुहागरात के कमरे के
ठीक बीच चट्टान पर
इधर-उधर बिखरी मुट्ठी-भर हल्दी लगी कौड़ियों की तरह,
कब से चालीस पार हुई
हालाँकि प्रथम यौवन के अभ्यासवश
काजल व्यवहार करने वाली
मृत्युपर्यंत ख़ुद को प्रेमिका की ढुल-ढुल भूमिका में
सजाकर रखने वाली नारी के
आँख-भर काजल की तरह;
जलते आकाश में
एक टुकड़े परिचित बादल की तरह;
करुण कोहरे में
डूब रहे निरीह आम के पेड़ों पर
गुच्छे-भर ताज़े बादल की तरह
दिन-ब-दिन अनाहार में
सीझी हुई माँ की
रक्तहीन आँखों के बूँद-बूँद आँसू की तरह;
चौराहे पर नित्य-प्रति
पैर पसार खड़े ज़मींदार के
मुट्ठी-भर निरर्थक वाक्यांशों की तरह;
ताज़ी मछलियों का बोझा सामने रख
मूँछ वाले मछुआरे के बेटे की
उद्धत अँगुलियों के बीच से
चूते मछलीयाँध पानी की
छोटी-बड़ी बुदबुदाहट की तरह;
विभिन्न प्रार्थनाओं के कातर ह्दय
भक्त की निस्वार्थ चेतना में घुटन भरे अनुभव की तरह;
मृत्यु के चंगुल से क्षत-विक्षत
महामहिम नेताओं की घिघियाहट की तरह;
हाल ही में सधवा हुई ललाट पर
चमचमाते रक्त से भी अधिक गाढ़े
बिंदिया-भर सिंदूर की तरह;
काले को सफ़ेद और रात को दिन
करने वाले धोखेबाज़ों की
सूक्ष्म धीमी हँसी की तरह;
चाँदनी रात में अशोक के फूलों के झूले में
नागकेशर का रस-पान करके
झूम रहे भाग्यवादी महंत की
रहस्य चित्रित लोलुप दृष्टि की
आशंका चिह्नित झुण्ड-भर छाया की तरह,
जोड़े को धूप में हाथ-पैर हिला-हिलाकर
ख़ुद-ब-ख़ुद खेल रहे
दो महीने के शिशु की नन्ही-नन्ही पलकों की तरह
उठा लिए
चुन-चुनकर कुछ शब्द
मेरी वयस्क अंजलि लबालब भर जाने तक
तीनों लोक महक उठे शब्दों की मुरली ध्वनि से
तीनों लोक चौंक उठे शब्दों की तेज़ गति से।
- पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1984 (पृष्ठ 45)
- संपादक : बालस्वरूप राही
- रचनाकार : दीपक मिश्र
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 1984
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