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सविता सिंह के लिए

sawita sinh ke liye

विपिन चौधरी

विपिन चौधरी

सविता सिंह के लिए

विपिन चौधरी

और अधिकविपिन चौधरी

     

    एक

    मांस-मज्जा को पार कर
    आत्मा की झीनी त्वचा को छूता,
    यह तीर
    कहीं टकराता नहीं
    छूता है बस
    तुम मेरे जीवन में
    उतरी हो
    एक तीर की तरह
    सच कहती हूँ
    कपास-सा नर्म यह तीर
    सफ़ेद नहीं,
    इसका रंग
    आसमानी है।

    दो

    दुःख सिर्फ़ पत्थर नहीं
    उसका भी एक सीना है
    दुःख की भी एक राह है जो
    प्रेम के मुहाने से निकलती है
    जाती चाहे कहीं भी हो
    तुम दुःख को इतना
    अपना बना देती हो
    कि कभी-कभी दुःख पर भी मुझे दुलार हो आता है जैसे तुम पर आता है दुलार
    तुम्हारा दुःख अब मेरा दुःख है यह मान लो
    तुमसे मिलकर दुःख पर  विश्वास और गहरा हुआ है
    दुःख एक मुक़द्दस चीज़ है अब मेरे लिए।

    तीन

    तुम्हारी संवेदना मुझे डराती है कई बार
    मैं तुम्हे उससे दूर ले जाना चाहती हूँ
    पर तुम्हारी संवेदना,
    देह है तुम्हारी
    यह मैंने जाना तुम्हारी कविताओं से
    कि तुम दूर नहीं हो सकती कविता से
    और अब मैं चाहती हूँ
    तुम रहो गहरी संवेदना के भीतर
    रहता है जैसे सफ़ेद बगुला
    पानी में बराबर।

    चार

    तुम्हारी नाव तो उस पार उतरती है
    पर तुम ठहरी रहती हो वहीं
    खिड़की से देखती
    आकाश और समुंदर के नीले विस्तार को
     मांट्रियाल में भी वही थी तुम
    आरा में भी
    दिल्ली में भी
    हो आती थी तुम दूर तलक
    पर क़ायदे से तुम वहीं रहती थी
    अपने कमरे में
    काली चाय पीती
    खिड़की से देखती
    तुम्हारा देखना,
    ठहरना है
    कि दृश्य भी ठहराव की एक सुंदर भंगिमा है
    यह भंगिमा अज़ीज़ है तुम्हें।

    पाँच

    तुम्हारा ठहराव मुझे पसंद है
    कि मेरा भी एकमात्र प्रेम यही है
    और आख़िरी भी
    किस प्रेम से तुम टूट कर बतियाती हो पृथ्वी के उस पार गए अपने प्रिय से
    कि मैं भी उससे दूर
    जो है  इसी पृथ्वी पर
    मगर अपनी दुनिया में मगन
    करती हूँ उस दूर के रहवासी से
    मुग्ध ऐसी ही प्रेमिल बातचीत
    सुनो,
    हम दोनों के बीच
    यह ठहराव ही तो है
    बाँधता है जो हमें
    और बींधता भी।

    छह

    अक्सर ही कहीं ऊँचे से देखती हो तुम
    दुःख की बल खाती हुई नदी का अचानक पत्थर हो जाना
    मन के सभी तंतुओं पर ऊँगली रख
    उन्हें झंकृत करती तुम
    जानती हो उनके तत्सम, विलोम, पर्यायवाची
    पीले रंग की उदास स्याही में घंटों डूबकर रचती गीले शब्द
    जो सुखाते हैं उनके भीतर
    पढ़ते हैं जो तुम्हारे एकांत में अपना रंग छोड़ती हुई कविताएँ
    नीले में पीला रंग मिलाकर हरा रंग बनाना तुम्हें पसंद नहीं
    कि कला की इस तमीज़ का रास्ता भी दुनियादारी की तरफ़ मुड़ता है
    दुनियादारी से तुम्हें परहेज़ नहीं
    पर इसका इनका रसायन अक्सर तुम्हें परेशान करता आया है
    तुम्हारी गंभीरता ले जाती है तुम्हें सबसे दूर
    एक परिचित परछाईं मुझे भी घेर लेती है अक्सर
    तब मुझे सोचना ही होता है तुम्हारे बारे में
    मुझे लिखनी ही होती है तुम पर एक कविता।

    सात

    ज़रुरी नहीं कि चीज़ें व्यस्थित करने के लिए एक सीधी रेखा खींच दी जाए
    और प्रेम के साथ-साथ जुदाई से भी दोस्ती कर ली जाए
    पर प्रेम ख़ुद ही जुदाई से रिश्ता बनाकर हमारे क़रीब आया
    तुम तब भी चुप रहीं
    स्त्रीवादी मनस्विता के सारे उपकरणों से लैस तुम
    इस प्रेम को सर्वोपरि मान चढ़ गईं कई सीढ़ियाँ नंगे पाँव
    यह जानते हुए कि लौटने का आशय लहूलुहान होना है
    पर जुदा होने के सारे सबक तुम्हें मुँहज़बानी याद थे
    उस समय भी जब प्रेम अलविदा कह गया था।

    आठ

    सपनों का रंग
    या भाषा का सन्नाटा
    या अपने ही मन का कुछ जमा करतीं
    चींटियों का अनुशासन तुमने ख़ूब देखा
    देखो अब भी वे पंक्तिबद्ध हो कहीं जा रही हैं
    होगा ज़रूर उनके मन का वहाँ
    अपने मन का तुमने भी ख़ूब पाया
    ख़ूब जमा की उदासी और समेटा अकेलापन
    और उसे बुनकर ओढ़ा दिया अपनी बिटिया को
    वह भी अब देखती है दुनिया उसी खिड़की से
    जिसमें बैठ देखी थी तुमने एक नाव जाती हुए दूसरे छोर की ओर।

    नौ

    सच, जीवन की बिछी हुई चादर उतनी ही चौड़ी है
    जितना उस पर ओढ़े जाने वाला लिहाफ़
    अक्सर नापने बैठ जाती हो तुम
    स्त्री के मन का आयतन
    जो प्रेम में मरे जा रहे हैं उनसे तुम्हें कुछ कहना है
    बताती हो तुम :
    ‘अँधेरे प्रेम के यातनागृह हैं’
    सुबकती हुई निकलती है इन अँधेरों से हर रोज़ एक स्त्री
    फिर भी नहीं देती जो प्रेम को टोकरा भर गालियाँ
    बस ख़ुद को पत्थर बनाकर रोज़ सहती है लहरों की चोट
    यह ख़्याल ही तुम्हारे मन पर एक झुर्री बना देता है।

    दस

    तुम्हारी कविताओं के प्रेम में डूबी मैं,
    बस इतना भर जानती हूँ
    कि उदासी जब घुटनों तक आ जाए तो ज़रूर उसे ओक भर पीकर देखना चाहिए
    फिर जब उदासी का पानी धीरे-धीरे जा छटे
    और हम हो जाएँ जीवन में तल्लीन
    तब भी उदासी का नीला जल
    मेरे कंठ में ताउम्र ठहरा रहे
    और तुम बार-बार मुझसे कह सको :
    ‘‘क्यों उतार ली तुमने भी अपने जीवन में यह नाव’’

    क्या मेरी डगमगाती मगर पार उतरने की ज़िद करती नाव ही इस समुंदर के लिए काफ़ी नहीं थी?

    ग्यारह

    वे स्त्रियाँ जिन्होंने अपने एकांत के रास्ते में आए झाड़-झगाड़ ख़ुद साफ़ किए थे
    उनकी उँगलियों के पोरों पर तुमने देखी श्रम की नीलिमा
    वे स्त्रियाँ भी
    जिनके सपनों में भी ख़र्च होती रही थी ऊर्जा
    जिन्होंने अपने सपनों से उस राजकुमार को दिया था खदेड़
    जिसने उन्हें करवाया था लंबा इंतज़ार
    अब देखो तुमने भी बना ली है अपने सपनों में ख़ासी जगह
    कितनी आसानी से आ जा सकती हो तुम इनके प्रांगण में
    बिना किसी से टकराए
    सोच सकती हो यहाँ विचरते हुए
    नई स्त्री के नए संविधान के बारे में
    लिख सकती हो उनकी प्रशस्ति में कोई कविता
    सही ही,
    तुमने अपने भूत की राख को अपने मस्तक पर नहीं लगाया
    देखती रही दुःख को और गाढ़ा होते हुए
    और इस प्रक्रिया को देखते हुए तुम्हारे चेहरे की चमक देखते ही बनती थी।

    बारह

    तुम्हारा एकांत ही
    एकमात्र पूँजी है तुम्हारी
    वहीँ रख छोड़ा है तुमने अपना जमा किया हुआ सामान
    जैसे चिड़िया घोंसले के लिए एक-एक तिनका ढूँढ़ लाती है
    तुमने उसी लगन से बनाई एकांत की चहारदीवारी
    स्त्री अपना समेटा हुआ किसी को नहीं दिखाती
    वक़्त आने पर ही दिखती है उसकी रौशनी
    ऐसा ही किया तुमने भी
    एकांत की वर्णमाला में क़रीने से सीखने में उलझी, ‘मैं’
    देखती हूँ तुम्हें एकांत का नित-नूतन गीत रचते हुए।

    तेरह

    तुम्हारे प्रभामंडल के ऊर्जा क्षेत्र में
    आड़ोलित तरंगें, चक्र, प्रतिबिंब इतनी शांत
    समुंदर अपने मौन-व्रत में हो जैसे
    तुम्हारे प्रभामंडल की
    विशिष्ट और जुदा लहर—देदीप्यमान —बाक़ी परतों से जुड़ी हुई है
    तुम्हारे इस विद्युत चुंबकीय प्रभामंडल में से जब गुज़रता होगा कोई
    तब उसके भीतर भी
    प्रिज़्म की तरह कई रंग निकलते होंगे
    और हर रंग अपने ढब का साथी ढूँढ़ लेता होगा
    तब रंगों की दुनिया और
    जीवन के रोज़गार में कुछ हलचल तो ज़रूर होती होगी।

    चौदह

    अनेकों  रंग, ध्वनियाँ, रौशनी की आवृत्तियाँ काँपती हैं
    तुम्हारे आस-पास सूखे पत्तों की मानिंद
    शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक, आध्यात्मिक स्थितियाँ
    कितनी ही दिशाओं में परिक्रमा कर
    थक, जल्दी ही लौट भी आती हैं
    पर उनमें जीवन का वज़न होता है
    और यह वज़न जानता है
    अब नई स्त्री
    हर तरह का भार उठा ही लेगी
    कि अब तो उसे अपनी भरी हुई गागर स्वयं ही उठानी होगी
    छलकने की परवाह किए बग़ैर।

    पंद्रह

    एक सपना तुमसे मिलकर
    नया आकार पा जाता है
    स्त्री एक और नया रंग बना लेती है
    कि अब उसे अपने बनाए रंग की ज़रूरत है
    तब तुम धीरे से सबसे पवित्र रंग
    सफ़ेद की ओर देखकर कहती हो :
    ‘शुक्रिया’
    स्त्री के मनचाहे रंग में अपना रंग शामिल करने के लिए
    ‘बहुत शुक्रिया’।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विपिन चौधरी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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