सत्य हमेशा सुंदर नहीं होता
satya hamesha sundar nahin hota
प्रेम की कितनी समझ है तुममें
कितनी सीढ़ियाँ चढ़ी हैं तुमने
कितनी रातों को उसके सिरहाने
बैठ उसे चुपचाप सोते देखा है
बारिश में तो सब ही भीगते हैं
तुम आँसुओं में कितना भीगे हो
कितना चले हो
रेत के पहाड़ों पर
थामे उसका हाथ, नंगे पाँव
कि प्रेम में पगा आदमी पेड़ों और जानवरों को
अपने अंक में भींच लेता है
क्या तुमने सींची है
अपनी सजलता से उसकी रुक्षता
कभी एक सुनहली शाम ढलते हुए देख
भीगने देना अपनी आँखें
सीने में जलती आग को दीप बनाकर
पूरी रात जलना मद्धम-मद्धम
प्रेम, अगर सत्य है तो
इस सत्य को असत्य बनने से रोकने के लिए
करना हर जतन
क्योंकि सत्य हमेशा सुंदर नहीं होता
प्रेम भी छिद्रवान है
बहुत ध्यान से चूमना उन रिसते कोटरों को
हो सकता है तुम्हारे ओष्ठों का खुरदुरापन
उसे घायल कर दे
तुम्हारी उँगलियों के पोर से होता संकुचन
पीड़ा ही दे दे उसे
पर तुम्हारी पनियाली आँखें
जैसे ही उसे स्पर्श करेंगी
प्रेम प्रमुदित हो उठेगा
इतना धीर है तुममें
तो समझो प्रेम की अलभ्य निधि तुम्हारे हाथ लग चुकी है।
- रचनाकार : पल्लवी विनोद
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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