यह कैसा आधा व्यक्तित्व!
तुम्हारा या मेरा
अलग-अलग साँझ या सबेरे का घेरा।
शब्दों को
साँसों की हवाओं के हाथों से
सकेल-सकेल
ओंठ की ठाँठी पहाड़ी से गिराऊँ
(व्यक्तित्व के सागर में)
ध्वनि विस्तारक आकाशी—
सूनी गागर में।
पर,
इस सुहाने दर्द के कानों में
इस अनहोनी की अँगुली क्यों फँस गई
कि मैं छटपटा-छटपटा मर जाऊँ
कि मैं बोलता हुआ ख़ुद अपने को न सुन पाऊँ,
वाह रे अपनत्व!
आँखों में घुटन की लपटों की पट्टी बाँधकर
शब्द चैंथी को टोंक-टोंक देते।
सीना को खरोंच-खरोंच कोई देखे
ज्यों—भरे समुंदर में
कोई उद्जन बॉम्ब के परीक्षण लेखे
और इस धुकधुकी की
उठती लहरों के तारतम्य की नाड़ी में
(कोई अनुभवी वैद्य)
आत्महत्या की बीमारी बताए—
यह कैसा स्वत्व (शरीर का)।
मेरे अस्तित्व भरे घड़े में
इतने कंकड़ मत डालो—
कि मेरी उबलती हुई नसों का पानी
आँखों के मुँह के किनारे के होंठों से
फिसलकर
हो जाए विद्रोहगामी–भाप बनकर
और इस छोर से और भी आगे
आगे-आगे और आगे
(जहाँ तक तुम्हारा मस्तिष्क भागे)
बढ़ जाए मेरा कृतित्व?
दर्द का बढ़ रहा घनत्व
फुग्गे-सा फूल-फूल
फटने को होता है जीवन-तत्व
वाह रे अपनत्व!
अपनत्व के तत्व!
कवि के कृतित्व!
जीवन के अस्तित्व!
मेरी हड्डियों की समिधाएँ
ऊबकर
अधजली-सी फूलकर
उभर क्यों रही हैं?
मेरी मांसपेशियों का घृत
बिना चुए भाप बनकर
कहाँ जा रहा है?
पैरों की बल्लियों में—
घुन क्यों पकड़ गया है?
क्या कभी सोचा है?
क्या इस बढ़ते कुरूप को ही
कह दिया पोचा है?
यह कैसा कृतित्व!
और ये दर्द का बढ़ रहा घनत्व!
क्या जाने अगले गिरने वाले पर्दे पर
कौन रंग ले रहा है तथ्य?
* * *
नहीं नहीं नहीं
ये क्या मैं कह गया
ढाल पाकर सहज ही
नीचे को बह गया।
दर्द के घनत्व
बहको मत, उफनाओ
घन बनकर छाओ,
स्नेह में मिले हुए दुरत्व
पिघलो मत,
रंध्र-रंध्र भेदो
स्वर को उन तक
नए ज़ोरों से गुँजा-गुँजा
बार-बार भेजो।
अपने कृतित्व में महक जाओ।
अपनत्व तो उनसे क्या
जिनके ढिग सहज पहुँच जाते हैं
वह तो—मिला हुआ जीवन है
जिसमें—
जन्म से रोकर मरण तक गाते हैं
क्षणों में, भावों को, शब्दों को—
एकाकार होकर के
इंद्रधनुष बनने में है
सूने आकाश की धरती पर
वर्तुलाकार तनने में है।
और कृतित्व!!
वह तो पा गए
जब यहाँ तक आ गए।
दूरत्व तो—
संवेदन तार को खींचकर
बजाने को दिया हुआ दान है
स्वत्व तो इन सबसे आगे
जो खड़ा हुआ तुम्हारा स्वाभिमान है।
अस्तित्व तो आकाश-सा बढ़ गया है—
जहाँ देखो वहीं चढ़ गया है।
तत्व जो गढ़ गया है—
(जिस भूत को)
अकड़ता हुआ वर्तमान भी
दो आँखें झुका पढ़ गया है।
- रचनाकार : मलय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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