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सपने नींद के और जाग के

sapne neend ke aur jag ke

प्रकाश चंद्रायन

प्रकाश चंद्रायन

सपने नींद के और जाग के

प्रकाश चंद्रायन

और अधिकप्रकाश चंद्रायन

    सपने आदतन आवारा हैं

    जहाँ देखी गहरी नींद,

    वहीं आवारगी पर उतारू।

    इतने रंग-रूप, भाव-भंगिमा, कहन-गढ़न के साथ चलती हैं

    ख़्वाबों की ये आवारगियाँ—

    कि रूमानी फ़िल्मों के स्वप्न-दृश्य भी बेमानी।

    मानो इसके सिवा कोई अंदाज़ नहीं,

    कोई अलहदा मन-मिज़ाज भी नहीं।

    जैसे आवारगी की कोई दिशा नहीं,

    वैसे ख़्वाबों की भी कहाँ?

    चाहे वे नीली रातों की पकी नींद के हों

    या पीले दिनों की कच्ची नींद के।

    बने-ठने या डरावने,

    शुष्क-रुक्ष या सुहाने-सुहावने।

    ज़िंदगी की जद्दोजहद से उनका क्या सरोकार?

    सिर्फ़ छायाभास… छायाभास… प्रतिभास।

    ***

    सपनों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा—

    कि उसे आवारागर्द विभूषित करने पर होगी अदभुत सहमति

    स्वप्नजीवियों और स्वप्नभक्षियों को कोई आपत्ति।

    मनोवादी और राज्यवादी दोनों रज़ामंद,

    इस रज़ामंदी पर सपने भी दंग-दंग।

    नितांत स्वप्नजीवियों ने तो तत्क्षण स्वीकारा—

    सपने क़ुदरतन आवारा।

    आवारापन तो पार्श्व है हमारा

    और सपने पार्श्वसंगीत।

    इसी जुमले पर तो सपनों के सौदागरों का वारा न्यारा… वारा न्यारा।

    स्वप्नभक्षियों ने भी लगाई मुहर—

    जहाँ जितने आवारा स्वप्न,

    वहाँ उतना आमुख जनतंत्र।

    देश उनींदा रहे या निद्रामग्न रहे,

    आवारा सपनों में ख़ूब-ख़ूब विचरे।

    बस, एक याराना माँग है,

    जाग के सपनों से दूर-बहुत दूर रहे।

    रज़ामंदी के स्वर गूँजे

    आमीन! आमीन!!

    तथास्तु! तथास्तु!!

    ऐसा ही हो! ऐसा ही हो!!

    ***

    जगी आँखों के स्वप्न नहीं होते,

    किताबी भाष्यों के बंदी।

    वे ज़िंदगी में देखे जाते हैं,

    कॉपीराइट के बाहर।

    वे ज़िंदगी देखते हैं और ज़िंदगी उन्हें।

    पहले वे दु:स्वप्न जैसे दिखते हैं,

    फिर महास्वप्न में घटित होते हैं—

    और नया महाजीवन प्रारंभ करते हैं।

    ये सपने टकसाली सिक्के नहीं

    कि तय साँचे में ढलें।

    समय को सपनों में ढालना पड़ता है

    और सपनों को समय से जूझना पड़ता है।

    नींद भी दीर्घनिद्रा नहीं होती,

    उसे भी टूटना ही है।

    जब जाग होना है,

    तब आवारा सपनों को दफ़ा होना ही है।

    ऐसे सपने नहीं होते परालौकिक,

    होते हैं इतने आमफ़हम

    कि बताए जाते हैं फ़ालतू।

    वे नहीं होते शेख़चिल्ली के सपने,

    बुनियादी सपनों से ही चलती है दुनिया।

    वे ही ख़तरों से खरबों साँसें बचा लाते हैं

    और हो जाते हैं विराट ज़िंदा दृश्य।

    आवारा ख़्वाबों में आती होंगी,

    हवा-हवाई तारिकाएँ और हीरो नंबर 1

    ख़यालों की भूलभुलैया में गड़प करने के लिए।

    जाग के सपनों में ही आते हैं,

    गली-मुहल्लों के हमक़दम—

    दुनिया का चक्का घुमाने के लिए।

    ***

    याद हैं वे रातें माई-दादी की नसीहतें

    घर-आँगन की जबर हिदायतें,

    सिरहाने लिखो देव-पुरुख के नाम,

    भाग जाएँगे बुरे सपने तमाम,

    लिखे जाते रहे चुन-चुन के नाम,

    आते ही रहे डरावने सपने बेलगाम

    भेद खुला कि दोनों के एकसूत्री काम

    क़ायम रहे क़ायम रहे डर का मक़ाम

    जब छोड़ दिया ये भौकाल

    तब आग से कटा अचेतन का जंजाल

    जाग के सपनों से टूटता है,

    सपनों के सौदागरों का तिलस्म—

    और उभर आते हैं जमीनी सपने।

    साफ़-साफ़ समझ आती है,

    ख़्वाबखोरों के ख़्वाबों की कूटभाषा—

    और आवारा सपनों का मायाजाल।

    जाग के सपने देखे जाएँ,

    ज़िंदा रहें—

    मारे जाएँ।

    मर पाएँ;

    सच किए जाएँ।

    रचना ही तो जगी आँखों का सपना है,

    वही सपना तो रचना है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रकाश चंद्रायन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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