घने अँधेरे के होने से नींद में जगते ही उजाला पाकर
आए हुए सारे सपनों पर से अँधेरा धीरे-धीरे हटते हुए ऐसे गिरता था कि आने वाले पूरे दिन के लिए जगह बना रहा हो
उजाले भरे दिन ऐसे होते थे कि मानो रोज़-रोज़ उनके लिए जगह बनाना आँखों को डबडबा देता था
डबडबाहट अँधेरे सपनों से उजाले की ओर जाने में होती थी या उजाले में चीज़ों को देखने से
इसी बात में सपनों का राज़ भी छिपा था
और नींद फिर से अँधेरा ख़त्म होते ही उजाले पर तारी होती आई
कि डबडबाई आँखों ने फिर रात के सपनों की धुँधली-सी तस्वीर बनानी शुरू कर दी
कि चार लोग मिलकर उसे धक्का दे रहे हैं
नीचे सीढ़ियाँ दिखाई दे रही हैं
जब वह गिर रही है तब नहीं
उन चारों की हँसी में वह भी शामिल है शायद पाँचवाँ
मैं कहाँ हूँ
चौंक कर उठता हुआ बाहर किसी कुत्ते की आवाज़ बीच ढूँढ़ता उजाले की कोई लकीर
वह गिरकर फिर से उठकर चली गई है
वे चारों सुबह की सैर कर रहे हैं
मेरे तकिए के नीचे सीढ़ियाँ पड़ी थीं और उनकी हँसी
मैं उन्हें नींद में से उठाकर सुबह की चाय बना रहा हूँ
तुम फिर से लौट आई
रात के आने
नींद के देर से आने और तुम्हारे इस तरह आने में
उन चारों की हँसी और सुबह की सैर की गति बढ़ जाती है
मेरी सुबह की चाय की कड़वाहट भी
कभी स्मृति में नहीं उठाए गए फ़ोन की अभी आ रही आवाज़ से चौंक कर मैं उठता हूँ
उजाले में उन सीढ़ियों को बेतहाशा ढूँढ़ता हूँ जो अभी मैंने अपने चाय के कप में मिला ली थीं
नींद के अँधेरे में वे सीढ़ियाँ मुझे कुत्ते की आवाज़ की ओर फिर से ले जाती हैं
कुत्ता मुझे चार टुकड़ों में बाँटकर उन पर मेरे चार चेहरे लगाकर सुबह की सैर पर निकला हैं
वे चारों ही मुझे धक्का दे रहे हैं
मैं सीढ़ियाँ न देखकर मन की सीढ़ियाँ को बग़ल में दबाए उन पर लगातार चढ़ता जा रहा हूँ कि उतरता
नहीं जानता
यह ठीक रात और दिन के घटने जैसा है
दिन और रात के अवकाश में
विलोम में, पर्याय में, बहुवचन में
चीज़ों के उपस्थित रहने के जैसा
वह अनुपस्थिति।
- रचनाकार : शिव कुमार गांधी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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