ताँबे के तारों से बना हूँ
विद्युत दौड़ती है त्वरित!
किसी तिनके की नोंक तक मुझसे सहन नहीं होती
मैं सूँघ कर बता सकता हूँ
कि इस भीमकाय पहाड़ में दर्रे कहाँ हैं
और
किन-किन घाटियों से सिंहों की दहाड़ उठती है
मैं चेष्टाओं को चख कर कह सकता हूँ
कौन क्या है, क्यों है
मेरे वातावरण ने आक्सीजन क्रमशः कम करते हुए
मेरे प्राणों को भले ही कलपाया हो
लेकिन सनसनियों का सिलसिला
तरंगशील होता जा रहा है
मैं आपको, आपसे अलग कर
क़रीने से बिठा सकता हूँ अपने में
आसमान जो कभी साफ़ था
मुझे मैले कपड़ों के ढेर-सा लगता है
हवाएँ जिसे नीले घाटों पर फचीटती हैं
और
उन्हें समंदरों में भिगो कर
धोबियों की तरह निचोड़ती हैं
देखिए न, रोमकूपों में कैसी सरसराहट हो रही है
जैसे कोई रस्सी धीमे-धीमे सुलग रही हो
कोई टाइम बम हमारी पसलियों में टिक्-टिक् करता है
ये जो हममें जगह-जगह गड्ढे पड़ गए हैं
धरातल चेचकदार हो गया है
यह सब बिजलियों की चलती चरख़ी की वजह से हुआ है
वस्तुओं और व्याक्तियों का विद्युतीकरण इतना हुआ है
कि कनेक्शन मिलते ही फ़्यूज़ उड़ जाता है
झटके झेलते हुए हमारा युग
लोहा चबा रहा है
सोना जेबों में भरे वह आग खा रहा है
यह किसी गुप्तचर वैज्ञानिक की लीला नहीं
ताम्रधातु के तारों का करिश्मा है
जो हमें ढोलक-सा कसे हुए हैं
विस्फोट के लिए उत्सुक
बिजलीघर-सा जलता-बुझता
रहता हूँ अनवरत!
- पुस्तक : निषेध के बाद (पृष्ठ 97)
- संपादक : दिविक रमेश
- रचनाकार : विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
- प्रकाशन : विक्रांत प्रेस
- संस्करण : 1981
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