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संतान-लाभ

santan laabh

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

संतान-लाभ

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    61

    बुद्धिमान सन्तान से, बढ़कर विभव सुयोग्य।

    हम तो मानेंगे नहीं, हैं पाने के योग्य॥

    62

    सात जन्म तक भी उसे, छू नहिं सकता ताप।

    यदि पावे संतान जो, शीलवान निष्पाप॥

    63

    निज संतान-सुकर्म से, स्वयं धन्य हों जान।

    अपना अर्थ सुधी कहें, है अपनी संतान॥

    64

    नन्हे निज संतान के, हाथ विलोड़ा भात।

    देवों के भी अमृत का, स्वाद करेगा मात॥

    65

    निज शिशु अंग-स्पर्श से, तन को है सुख-लाभ।

    टूटी-फूटी बात से, श्रुति को है सुख-लाभ॥

    66

    मुरली-नाद मधुर कहें, सुमधुर वीणा-गान।

    तुतलाना संतान का, जो सुना निज कान॥

    67

    पिता करे उपकार यह, जिससे निज संतान।

    पंडित-सभा-समाज में, पावे अग्रस्थान॥

    68

    विद्यार्जन संतान का, अपने को दे तोष।

    उससे बढ़ सब जगत को, देगा वह संतोष॥

    69

    पुत्र जनन पर जो हुआ, उससे बढ़ आनन्द।

    माँ को हो जब वह सुने, महापुरुष निज नन्द॥

    70

    पुत्र पिता का यह करे, बदले में उपकार।

    `धन्य धन्य इसके पिता’, यही कहे संसार॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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