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संन्यास

sannyas

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

संन्यास

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    341

    ज्यों ज्यों मिटती जायगी, जिस जिसमें आसक्ति।

    त्यों त्यों तद्‍गत दुःख से, मुक्त हो रहा व्यक्ति॥

    342

    संन्यासी यदि बन गया, यहीं कई आनन्द।

    संन्यासी बन समय पर, यदि होना आनन्द॥

    343

    दृढ़ता से करना दमन, पंचेन्द्रियगत राग।

    उनके प्रेरक वस्तु सब, करो एकदम त्याग॥

    344

    सर्वसंग का त्याग ही, तप का है गुण-मूल।

    बन्धन फिर तप भंग कर, बने अविद्या-मूल॥

    345

    भव-बन्धन को काटते, बोझा ही है देह।

    फिर औरों से तो कहो, क्यों संबन्ध-सनेह॥

    346

    अहंकार ममकार को, जिसने किया समाप्त।

    देवों को अप्राप्य भी, लोक करेगा प्राप्त॥

    347

    अनासक्त जो हुए, पर हैं अति आसक्त।

    उनको लिपटें दुःख सब, और करें नहिं त्यक्त॥

    348

    पूर्ण त्याग से पा चुके, मोक्ष- धाम वे धन्य।

    भव- बाधा के जाल में, फँसें मोह-वश अन्य॥

    349

    मिटते ही आसक्ति के, होगी भव से मुक्ति।

    बनी रहेगी अन्यथा, अनित्यता की भुक्ति॥

    350

    वीतराग के राग में, हो तेरा अनुराग।

    सुदृढ़ उसी में रागना, जिससे पाय विराग॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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