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शरद्-वर्णन

sharad varnan

अनुवाद : शांतिकुमार नानूराम व्यास

कविशेखर राजशेखर

कविशेखर राजशेखर

शरद्-वर्णन

कविशेखर राजशेखर

और अधिककविशेखर राजशेखर

    मतवाले मयूरों को कुछ-कुछ गर्जित करती हुई तथा मुर्गों और भौरों

    को चपल बनाती हुई यह शरद् ऋतु (लाल) कमलों को खिलाकर कुमुदों

    (श्वेत कमलों) और उत्पलों (नील कमलों) को विकसित करती हुई रही है।

    गुलाब, बाण, आसन, सिन्धुवार, सप्तपलाश, काँस, सिरस, नीलोत्पल,

    मालती आदि के पौधो में पुष्पों का सन्निवेश करती हुई शरद सुशोभित हो रही है।

    निर्मल जल और खंजन पक्षियों वाली तथा ईख, हंस, चकवों और

    बगुलों के समूह से युक्त शरद् ऋतु किसके चित्त को आकर्षित नहीं करती?

    मधुर स्वर वाले हंस-समूहों को लाती हुई, अगस्त्य तारे को दिखाकर

    जल को स्वच्छ करती हुई तथा मोतियों में शुभ्र गर्भ का आधान करती हुई

    शरद् ऋतु अपने विचित्र चरित्रों से शोभित हो रही है।

    खुरों के अग्र भागों से साँड पृथ्वी को खोद रहे हैं, चिंघाड़ने वाले

    हाथी दाँतों से किनारों को तोड़ रहे हैं तथा मृग जीर्ण-शीर्ण सींगों को छोड़

    रहे हैं —इस प्रकार ये लोगों को अपनी ओर देखने के लिए उत्सुक

    करते हैं।

    जल के समान नीले आकाश में चारों ओर निर्मल प्रकाश वाली चाँदनी

    छिटक रही है। ऐरावत के मार्ग से (पूर्व दिशा से) दिन निकल रहा है।

    जीर्ण बादलों के टुकड़े पीले पड़ गए हैं।

    (शरद् में) महानवमी के दिन समस्त अस्त्रों की पूजा तथा घोड़े,

    हाथी और योद्धाओं की आरती की जाती है। दीपावली पर उत्सुक राजाओं द्वारा

    विविध विलास किए जाते हैं।

    आकाश में तारों का समूह अधिक प्रकाशित हो रहा है। पृथ्वी हिलने-

    डुलने और चलने-फिरने के लिए उपयुक्त हो गई है। शरद् में सूर्य की रश्मियाँ

    अधिक प्रखर हो जाती हैं तथा देवताओं के द्वारा विष्णु जगाए जाते हैं।

    खेतों में धान पककर सुंदर प्रतीत होता है। पुराना पका हरा आँवला

    बहुमूल्य हो गया है। पक जाने के कारण गिरने वाले वृक्षविशेषों के फल

    सुगंधित हो रहे हैं, क्योंकि फूटने से उनके भीतर की गंध प्रस्फुटित हो

    रही है।

    किसानों के घरों के आँगन नए धानों के कणों के गिरने से सुगंधित

    और सुंदर हो रहे हैं। वे ग्राम-वधूटियाँ आनंद बिखेर रही हैं, जिनके हाथों

    की चूड़ियाँ मूसल को उठाने के कारण झनझना रही हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 683)
    • रचनाकार : कविशेखर राजशेखर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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