1
मालूम नहीं था मुझे कि दिशाएँ कितनी हैं; तभी से
चैत्र-पल्लव की भाँति वे स्मृतियाँ झिलमिलाती रही हैं।
ख़ून के घड़ियाल बनकर कभी पैर खींच ले जाती हैं।
कभी उनमें आसमान से लटक आने वाले खजोहरे की
खुजली होती है। कभी उनका एक फंदा बिलबिलाता रहता है
लेअकून की पसलियों के चारों ओर। कभी उन्हीं के बनते हैं क़ैदख़ाने, बनते हैं बारुदख़ाने
लेकिन फिर भी अँधेरे के विशाल भाल पर तुम्हारे भौंह की
ऊँची कमान खड़ी है... उसके नीचे की यह राह कहाँ जाती है?
दिशाएँ कितनी यह अभी भी नहीं समझा मैंने। लेकिन फिर भी
हर दिशा में डूबने के लिए पर्याप्त जल है, और डूबते हुए
धन्यता का एहसास हो इतना गहरा कहीं भी नहीं, अन्यथा पार के
अज्ञात से एक काला हाथ नहीं उठता ऊपर
हिलाते हुए अँगूठा... लेकिन मैं समुद्र खोदने वाला हूँ और
तुम्हारी अंजुरी से भरने वाला हूँ, क्योंकि अभी भी तुम्हारी भौंह की ऊँची कमान खड़ी है।
2
यह अनुभव का अंजन आँख में जज़्ब कर... फिर देखो :
सामने वाली पहाड़ी पर रेंगती जाने वाली सर्पिल रेखाएँ
पकड़ रखो। बहते पानी पर लकदक करने वाले कलाबत्तु,
चहकने वाली किरणों के; कस कर पकड़ो। हरे घने
पत्तों की चोंच में अंगुली डाल कर दंशित हो जाओ। हाथ की रेखाएँ
दूर्वाओं पर फैलाकर अपनी क़िस्मत की पूजा बाँधो, गीली बालू में
धँस जाओ, धँस जाओ। आसमान पर फेंकी आँखें
फिर एक बार लोक लो। मतलई के साथ बहती जाओ, नहाती जाओ।
और राहों पर अभागे जख़्मों को सूँघकर आई हिचकी को... दबाओ।
इसके इस पार रेती है, और उस पार है अँधेरा
इस तार पर से संतुलन संभालते संभलकर चलना...आना हो
तो साड़ी बदल कर जल्दी चलो... ज़ीने पर से पाँवों के बजने के पहले
मेरी जेब तुमने अभी क्यों नहीं सिली? (शायद रखी हो
उतनी ही राह अपने को भागने के लिए!)... ज़ीने पर से पाँवों के बजने के पहले।
3
अपने वंशवृक्ष के निगूढ़ गीतों को मुझे एक बार समझाकर बताना
अहिल्या की शिला बन गई... इतनी तृप्ति उसे कैसे मिली?
प्रकाश की गाँठ खुलते समय इंद्र के शरीर पर उगी आँखें
कैसे चमकी? और धर्म को सहने वाली पांचाली का योग;
पतिव्रता गांधारी की समझदार आँखों द्वारा पहचाना डर, बंधा हुआ;
सीता लक्ष्मण में घुला हुआ रामायण, उनकी भी समझ के परे का;
अपने वंशवृक्ष के इन निगूढ़ गीतों को मुझे एक बार समझा कर बताना;
प्रकाश देखकर अंधा बन जाने को भी अब मैं प्रतिश्रुत हूँ।
मेरी आँख पर बालों को फैलाकर वह प्रकाश मत छुपाना,
वह उत्कंठा अभी मेरी है; यह इतना ही मेरा है।
रामायण तुम्हारा है; और महाभारत भी तुम्हारा ही है।
यह इतना ही मेरा है; बिलबिलाने वाली वासना पर के
प्रकाश का जहरीला फन मुझे एक बार देखना ही होगा।
अहिल्या की शिला को पैर लगाने वाले हर राम के पत्थर होने के पहले।
4
एक रास रचकर छिपाया है मैंने अपने को; उस रास में
फ़्रांस के 'गुह्य' चित्र, पेकिंग के आदिमानव की हँसने वाली दुमकी हड्डी,
प्लांक का सिद्धांत, बुद्ध का दाँत, नरमेध का संस्कारशास्त्र,
जगन्नाथ का रथोत्सव; हैमलेट के महावाक्य; एलिफेंटा की त्रिमूर्ति;
नागासाकी का नग्नांध; फादर डेमायन का महादिव्य;
अंतिम डायनोसोर की छटपटाहट; हिमपर्व का जल-तांडव;
प्रवाल द्वीप की चांदनी में नग्ननृत्य... और प्रस्थानत्रयी;
इनकी छायाएँ हिलमिल गई हैं। मैंने अपने को छिपाया है क्वारेपन से
हँसो मत; एक रास रचकर तुमने भी अपने को छिपाया है;
पालने पर बांधी स्वप्नों की चहक चिड़ियाँ; शाम की राम रक्षा;
अँगीठी के अँगार पर फुलाया हलवा; भिगोयी भैयादूज
गठरी में छिपाई हुई; बचे हुए आटे की नन्ही-सी चाँद रोटी;
हस्तिदंती कंघी; और सोनतार में गूंथा हुआ मंगल-सूत्र।
राधे! इस रासक्रीड़ा की मुरली कहाँ है? मुरली कहाँ है?
5
जब खुल गया विश्वरूप का जबड़ा जिवा-विहीन,
और दाँत लगे करकराने; जब हुआ द्विखंडित जरासंध जैसा;
जब वस्तुओं के बने आईने, और उलट गए मेरे ही प्रतिबिंब
मेरी ही आत्मा पर... तब रसोईघर के खंभे पर हाथ रखकर
तुमने पृथ्वी को आधार दिया; और दुनिया को बेचे हुए हाथों को
फिर एक बार लौटा लाई मुक्त कर। तब तुमने कहा,
भविष्य के लिए दी हुई भेंट भविष्य को पहुँचा दो
खंभे पर झुकी हुई वह आकाशवाणी मैं अब तक नहीं भूला।
तुम्हें देहरी की शपथ दिलाकर मैंने निहोरा (भूली नहीं होंगी)
मेरी रीढ़ पर भविष्य का उग्र भार क्यों रखती हो?
यह चित्र देखो और यह विचित्र देखो, ऐ यथार्थ,
फटे आसमान को टाँका डालने वाला बिजली का सूजा कहाँ है?
लेकिन हाथ के उधेड़े झंगूले को सीते हुए तुमने कहा,
“तुम आज थके-मांदे लग रहे हो; चलो हम घूमने चलें... पूरब को।
6
एक बार आसमान नन्हा-सा धूप-टुकड़ा बन तुम्हारे पैरों के पास
गिर गया और काल का प्रारंभ हो गया। तुम्हारी हथेली की
ललौंही रेखाएँ मेरी कलाई पर उगने लगी और दिशाओं का
प्रारंभ हुआ। क्यों? किसलिए? इसे न समझते हुए,
मस्ती में उछाला हुआ प्रवाही प्रारंभ। उस प्रारंभ में ही मैंने महसूसा
अंत का आकर्षण, क्षितिजों को जोड़ने वाला यथार्थ अस्तित्व।
और रास्तों के दोनों ओर स्वप्नों को उछालते हुए
गया झपट्टा मारते हुए भविष्य की दिशा में, लेकर के पहले ही अटल का दर्शन।
तुम 'स' बंध-सी रहीं पीछे; नहीं झपटी यात्रा की धार में
मुझे खटका तुम्हारा सुस्त, सुखासक्त, स्वास्थ्य के लिए लालायित होना
और स्वप्नों की फ़िजूलख़र्ची ख़त्म होने पर रीते हाथों से आँखें बंद करते हुए
बरगलाया कुछ भी। तब धीमे क़दम रखती हुई तुम आगे आई,
और बोली, “तुम्हारे उछाले उन स्वप्नों में से ये अँकुराने वाले स्वप्न
मैंने आँचल में इकट्ठा किए हैं; उन्हें अपने समर्थ हाथों का आधार दो।”
7
घुप्प अँधेरे में ओतप्रोत स्तनों की धमकी देकर समूचे जीवन को
उजला कर देने की तुम्हारी शक्ति का मैंने अनुभव किया है;
और पंखुड़ियों में से खिलता जाने वाला मौनमत्त लास्य,
उसकी शक्ति को मैंने महसूसा है; कटसरैया के फूलों को मसलने वाला,
मरोड़े हुए होठों से ऐंठने वाला ग़ुस्सा, हाथ बाँधने वाला;
आकारवश इंद्रियों की दुराराध्य बंदिश; अँधेरे पर टपकने वाली वासना की ठुमरी;
—इन सब की अपार शक्ति मेरे प्राणों पर अरराकर गिर पड़ी है;
गिर गया हूँ... लेकिन लोकने वाले हाथ भी तुम्हारे ही हैं, झुटपुटे के।
इसीलिए तो मैं भयंकर को आँख मारकर फिर वापस
आता हूँ तुम्हारे पास; जख़्मों के मानचिह्न धारण कर अकड़ते हुए फिर वापस
तुम्हारे पास ही आता हूँ। मैंने अनामिक को ताक़ीद की है,
“तुम बीच में न आना; ‘जीवन से यह मेरा प्रेम-कलह है।’
जिसने अस्तित्व को भोगा है वह निराकार पर रीझेगा नहीं।”
गिर पड़ा हूँ... लेकिन लोकने वाले हाथ भी तुम्हारे ही हैं, झुटपुटे के।
8
वह हमेशा ही कोने के पास खड़ा रहता है; दुख के पीछे छिपा रहता है।
वह मुझसे भी मिला था... काशी से लौटने पर
रास्ते के कोने के पास एक पैर पर तौलते हुए खड़ा था,
‘हँसने वाला’ कोढ़ी, वह मुझसे भी मिला था... अजमेर के पास
शंकर के मंदिर के पीछे, अपनी तराशी हुई मूर्ति के सीने से
कान लगाकर हृदय की धड़कनें सुन रहा था; चिंदी लगाकर
जी रहा था, शिल्पकार... वह मुझसे भी मिला था...
अंधा होकर पीस रहा था... भूखा होकर बो रहा था, मुँह उजाले में
वह तुमसे भी मिला था, 'नंदू' के जन्म के समय...। बिल्कुल झुटपुटे में
लेकिन तुमने उसे पहचाना नहीं, यह बहुत अच्छा किया।
कैसे गर्दन नीचे किए सीधा-सादा-सा निकल गया
फिर भी पगचिह्न अंकित थे; पत्थर में गड़ गए थे।
लेकिन तुमने उसे पहचाना नहीं, यह बहुत अच्छा किया!
उसकी पहचान देने वाली जलती महामुद्राओं से तुम्हारे नन्हे-मुन्ने की सुरक्षा हो।
9
...ब्रह्मदेवता के मंदिर के सामने वाली वह घुन्नी चट्टान तुम्हें याद है?
वामकुक्षि करने वाली। मेरे बचपन में उसके शरीर पर
एक जूही की लता बावरी-सी विचरी थी...“तुम स्टोव में इतना तेल क्यों भरते हो?”
परसु चाचा की अंगुलियाँ झड़ने पर ऐन मध्य रात को दादाजी ने उन्हें
दही-भात खिलाया, और बाद में एक डोला पहाड़ के आधार से
'भेंडावत' की ओर सरकने लगा था...“यह हाथ साफ़ करने का कपड़ा यहाँ
कील पर टाँगने के लिए कितनी बार तुमसे कहा था?
...ज्ञानेश्वर की समाधि का द्वार बंद करते समय... “द्वार खुला ही है; अंदर आइए।
जो फैली बाहों में नहीं आता वह चुटकी में पकड़ा जा सकता है,
यह तुमने मुझे दिखाया है। पृथ्वी पर पैर रोपकर
तुम ऐसे ही खड़ी रहो। आकाश के 'हुँकार' को तुम झुनझुना
बजाकर दिखाओ... दो मनुष्यों की आत्माओं में एक बड़ी दीवार होती है
अपनी ओर के उन भित्तिचित्रों की रक्षा करो; और मृग के तूफ़ान में
उखड़ जाने वाले कल के अंकुरों को अपनी साँसों का आधार दो।
1
malum nahin tha mujhe ki dishayen kitni hain; tabhi se
chaitr pallaw ki bhanti we smritiyan jhilmilati rahi hain
khoon ke ghaDiyal bankar kabhi pair kheench le jati hain
kabhi unmen asman se latak aane wale khajohre ki
khujli hoti hai kabhi unka ek phanda bilabilata rahta hai
leakun ki pasaliyon ke charon or kabhi unhin ke bante hain qaidkhane, bante hain barudkhane
lekin phir bhi andhere ke wishal bhaal par tumhare bhaunh ki
unchi kaman khaDi hai uske niche ki ye rah kahan jati hai?
dishayen kitni ye abhi bhi nahin samjha mainne lekin phir bhi
har disha mein Dubne ke liye paryapt jal hai, aur Dubte hue
dhanyata ka ehsas ho itna gahra kahin bhi nahin, anyatha par ke
agyat se ek kala hath nahin uthta upar
hilate hue angutha lekin main samudr khodne wala hoon aur
tumhari anjuri se bharne wala hoon, kyonki abhi bhi tumhari bhaunh ki unchi kaman khaDi hai
2
ye anubhaw ka anjan ankh mein jazb kar phir dekho ha
samne wali pahaDi par rengti jane wali sarpil rekhayen
pakaD rakho bahte pani par lakdak karne wale kalabattu,
chahakne wali kirnon ke; kas kar pakDo hare ghane
patton ki chonch mein anguli Dal kar danshit ho jao hath ki rekhayen
durwaon par phailakar apni qimat ki puja bandho, gili balu mein
dhans jao, dhans jao asman par phenki ankhen
phir ek bar lok lo matali ke sath bahti jao, nahati jao
aur rahon par abhage jakhmon ko sunghakar i hichki ko dabao
iske is par reti hai, aur us par hai andhera
is tar par se santulan sambhalte sambhalkar chalna aana ho
to saDi badal kar jaldi chalo zine par se panwon ke bajne ke pahle
meri jeb tumne abhi kyon nahin sili? (shayad rakhi ho
utni hi rah apne ko bhagne ke liye!) zine par se panwon ke bajne ke pahle
3
apne wanshwriksh ke niguDh giton ko mujhe ek bar samjhakar batana
ahilya ki shila ban gai itni tripti use kaise mili?
parkash ki ganth khulte samay indr ke sharir par ugi ankhen
kaise chamki? aur dharm ko sahne wali panchali ka yog;
patiwrata gandhari ki samajhdar ankhon dwara pahchana Dar, bandha hua;
sita laxman mein ghula hua ramayan, unki bhi samajh ke pare ka;
apne wanshwriksh ke in niguDh giton ko mujhe ek bar samjha kar batana;
parkash dekhkar andha ban jane ko bhi ab main pratishrut hoon
meri ankh par balon ko phailakar wo parkash mat chhupana,
wo utkantha abhi meri hai; ye itna hi mera hai
ramayan tumhara hai; aur mahabharat bhi tumhara hi hai
ye itna hi mera hai; bilbilane wali wasana par ke
parkash ka jahrila phan mujhe ek bar dekhana hi hoga
ahilya ki shila ko pair lagane wale har ram ke patthar hone ke pahle
4
ek ras rachkar chhipaya hai mainne apne ko; us ras mein
frans ke guhy chitr, peking ke adimanaw ki hansne wali dumki haDDi,
plank ka siddhant, buddh ka dant, narmedh ka sanskarshastr,
jagannath ka rathotsaw; haimlet ke mahawaky; eliphenta ki trimurti;
nagasaki ka nagnandh; phadar Demayan ka mahadiwya;
antim Daynosor ki chhatpatahat; himparw ka jal tanDaw;
prawal dweep ki chandni mein nagnnritya aur prasthanatryi;
inki chhayayen hilmil gai hain mainne apne ko chhipaya hai kwarepan se
hanso mat; ek ras rachkar tumne bhi apne ko chhipaya hai;
palne par bandhi swapnon ki chahak chiDiyan; sham ki ram rakhsha;
angihti ke angar par phulaya halwa; bhigoyi bhaiyaduj
gathri mein chhipai hui; bache hue aate ki nannhi si chand roti;
hastidanti kanghi; aur sontar mein guntha hua mangal sootr
radhe! is rasakriDa ki murli kahan hai? murli kahan hai?
5
jab khul gaya wishwarup ka jabDa jiwa wihin,
aur dant lage karakrane; jab hua dwikhanDit jarasandh jaisa;
jab wastuon ke bane aine, aur ulat gaye mere hi pratibimb
meri hi aatma par tab rasoighar ke khambhe par hath rakhkar
tumne prithwi ko adhar diya; aur duniya ko beche hue hathon ko
phir ek bar lauta lai mukt kar tab tumne kaha,
bhawishya ke liye di hui bhent bhawishya ko pahuncha do
khambhe par jhuki hui wo akashwani main ab tak nahin bhula
tumhein dehri ki shapath dilakar mainne nihora (bhuli nahin hongi)
meri reeDh par bhawishya ka ugr bhaar kyon rakhti ho?
ye chitr dekho aur ye wichitr dekho, ai yatharth,
phate asman ko tanka Dalne wala bijli ka suja kahan hai?
lekin hath ke udheDe jhangule ko site hue tumne kaha,
“tum aaj thake mande lag rahe ho; chalo hum ghumne chalen purab ko
6
ek bar asman nanha sa dhoop tukDa ban tumhare pairon ke pas
gir gaya aur kal ka prarambh ho gaya tumhari hatheli ki
lalaunhi rekhayen meri kalai par ugne lagi aur dishaon ka
prarambh hua kyon? kisaliye? ise na samajhte hue,
masti mein uchhala hua prawahi prarambh us prarambh mein hi mainne mahsusa
ant ka akarshan, kshitijon ko joDne wala yatharth astitw
aur raston ke donon or swapnon ko uchhalte hue
gaya jhapatta marte hue bhawishya ki disha mein, lekar ke pahle hi atal ka darshan
tum s bandh si rahin pichhe; nahin jhapti yatra ki dhaar mein
mujhe khatka tumhara sust, sukhasakt, swasthy ke liye lalayit hona
aur swapnon ki fijulkharchi khatm hone par rite hathon se ankhen band karte hue
baraglaya kuch bhi tab dhime qadam rakhti hui tum aage i,
aur boli, “tumhare uchhale un swapnon mein se ye ankurane wale swapn
mainne anchal mein ikattha kiye hain; unhen apne samarth hathon ka adhar do ”
7
ghupp andhere mein otaprot stnon ki dhamki dekar samuche jiwan ko
ujla kar dene ki tumhari shakti ka mainne anubhaw kiya hai;
aur pankhuDiyon mein se khilta jane wala maunmatt lasy,
uski shakti ko mainne mahsusa hai; katasraiya ke phulon ko masalne wala,
maroDe hue hothon se ainthne wala ghussa, hath bandhne wala;
akarwash indriyon ki duraradhy bandish; andhere par tapakne wali wasana ki thumri;
—in sab ki apar shakti mere pranon par arrakar gir paDi hai;
gir gaya hoon lekin lokne wale hath bhi tumhare hi hain, jhutpute ke
isiliye to main bhayankar ko ankh markar phir wapas
ata hoon tumhare pas; jakhmon ke manchihn dharan kar akaDte hue phir wapas
tumhare pas hi aata hoon mainne anamik ko taqid ki hai,
“tum beech mein na ana; ‘jiwan se ye mera prem kalah hai ’
jisne astitw ko bhoga hai wo nirakar par rijhega nahin ”
gir paDa hoon lekin lokne wale hath bhi tumhare hi hain, jhutpute ke
8
wo hamesha hi kone ke pas khaDa rahta hai; dukh ke pichhe chhipa rahta hai
wo mujhse bhi mila tha kashi se lautne par
raste ke kone ke pas ek pair par taulte hue khaDa tha,
‘hansne wala’ koDhi, wo mujhse bhi mila tha ajmer ke pas
shankar ke mandir ke pichhe, apni tarashi hui murti ke sine se
kan lagakar hirdai ki dhaDaknen sun raha tha; chindi lagakar
ji raha tha, shilpakar wo mujhse bhi mila tha
andha hokar pees raha tha bhukha hokar bo raha tha, munh ujale mein
wo tumse bhi mila tha, nandu ke janm ke samay bilkul jhutpute mein
lekin tumne use pahchana nahin, ye bahut achchha kiya
kaise gardan niche kiye sidha sada sa nikal gaya
phir bhi pagchihn ankit the; patthar mein gaD gaye the
lekin tumne use pahchana nahin, ye bahut achchha kiya!
uski pahchan dene wali jalti mahamudraon se tumhare nannhe munne ki suraksha ho
9
brahmdewta ke mandir ke samne wali wo ghunni chattan tumhein yaad hai?
wamkukshi karne wali mere bachpan mein uske sharir par
ek juhi ki lata bawri si wichri thi “tum stow mein itna tel kyon bharte ho?”
parsu chacha ki anguliyan jhaDne par ain madhya raat ko dadaji ne unhen
dahi bhat khilaya, aur baad mein ek Dola pahaD ke adhar se
bhenDawat ki or sarakne laga tha “yah hath saf karne ka kapDa yahan
keel par tangane ke liye kitni bar tumse kaha tha?
gyaneshwar ki samadhi ka dwar band karte samay “dwar khula hi hai; andar aiye
jo phaili bahon mein nahin aata wo chutki mein pakDa ja sakta hai,
ye tumne mujhe dikhaya hai prithwi par pair ropkar
tum aise hi khaDi raho akash ke hunkar ko tum jhunajhuna
bajakar dikhao do manushyon ki atmaon mein ek baDi diwar hoti hai
apni or ke un bhittichitron ki rakhsha karo; aur mrig ke tufan mein
ukhaD jane wale kal ke ankuron ko apni sanson ka adhar do
1
malum nahin tha mujhe ki dishayen kitni hain; tabhi se
chaitr pallaw ki bhanti we smritiyan jhilmilati rahi hain
khoon ke ghaDiyal bankar kabhi pair kheench le jati hain
kabhi unmen asman se latak aane wale khajohre ki
khujli hoti hai kabhi unka ek phanda bilabilata rahta hai
leakun ki pasaliyon ke charon or kabhi unhin ke bante hain qaidkhane, bante hain barudkhane
lekin phir bhi andhere ke wishal bhaal par tumhare bhaunh ki
unchi kaman khaDi hai uske niche ki ye rah kahan jati hai?
dishayen kitni ye abhi bhi nahin samjha mainne lekin phir bhi
har disha mein Dubne ke liye paryapt jal hai, aur Dubte hue
dhanyata ka ehsas ho itna gahra kahin bhi nahin, anyatha par ke
agyat se ek kala hath nahin uthta upar
hilate hue angutha lekin main samudr khodne wala hoon aur
tumhari anjuri se bharne wala hoon, kyonki abhi bhi tumhari bhaunh ki unchi kaman khaDi hai
2
ye anubhaw ka anjan ankh mein jazb kar phir dekho ha
samne wali pahaDi par rengti jane wali sarpil rekhayen
pakaD rakho bahte pani par lakdak karne wale kalabattu,
chahakne wali kirnon ke; kas kar pakDo hare ghane
patton ki chonch mein anguli Dal kar danshit ho jao hath ki rekhayen
durwaon par phailakar apni qimat ki puja bandho, gili balu mein
dhans jao, dhans jao asman par phenki ankhen
phir ek bar lok lo matali ke sath bahti jao, nahati jao
aur rahon par abhage jakhmon ko sunghakar i hichki ko dabao
iske is par reti hai, aur us par hai andhera
is tar par se santulan sambhalte sambhalkar chalna aana ho
to saDi badal kar jaldi chalo zine par se panwon ke bajne ke pahle
meri jeb tumne abhi kyon nahin sili? (shayad rakhi ho
utni hi rah apne ko bhagne ke liye!) zine par se panwon ke bajne ke pahle
3
apne wanshwriksh ke niguDh giton ko mujhe ek bar samjhakar batana
ahilya ki shila ban gai itni tripti use kaise mili?
parkash ki ganth khulte samay indr ke sharir par ugi ankhen
kaise chamki? aur dharm ko sahne wali panchali ka yog;
patiwrata gandhari ki samajhdar ankhon dwara pahchana Dar, bandha hua;
sita laxman mein ghula hua ramayan, unki bhi samajh ke pare ka;
apne wanshwriksh ke in niguDh giton ko mujhe ek bar samjha kar batana;
parkash dekhkar andha ban jane ko bhi ab main pratishrut hoon
meri ankh par balon ko phailakar wo parkash mat chhupana,
wo utkantha abhi meri hai; ye itna hi mera hai
ramayan tumhara hai; aur mahabharat bhi tumhara hi hai
ye itna hi mera hai; bilbilane wali wasana par ke
parkash ka jahrila phan mujhe ek bar dekhana hi hoga
ahilya ki shila ko pair lagane wale har ram ke patthar hone ke pahle
4
ek ras rachkar chhipaya hai mainne apne ko; us ras mein
frans ke guhy chitr, peking ke adimanaw ki hansne wali dumki haDDi,
plank ka siddhant, buddh ka dant, narmedh ka sanskarshastr,
jagannath ka rathotsaw; haimlet ke mahawaky; eliphenta ki trimurti;
nagasaki ka nagnandh; phadar Demayan ka mahadiwya;
antim Daynosor ki chhatpatahat; himparw ka jal tanDaw;
prawal dweep ki chandni mein nagnnritya aur prasthanatryi;
inki chhayayen hilmil gai hain mainne apne ko chhipaya hai kwarepan se
hanso mat; ek ras rachkar tumne bhi apne ko chhipaya hai;
palne par bandhi swapnon ki chahak chiDiyan; sham ki ram rakhsha;
angihti ke angar par phulaya halwa; bhigoyi bhaiyaduj
gathri mein chhipai hui; bache hue aate ki nannhi si chand roti;
hastidanti kanghi; aur sontar mein guntha hua mangal sootr
radhe! is rasakriDa ki murli kahan hai? murli kahan hai?
5
jab khul gaya wishwarup ka jabDa jiwa wihin,
aur dant lage karakrane; jab hua dwikhanDit jarasandh jaisa;
jab wastuon ke bane aine, aur ulat gaye mere hi pratibimb
meri hi aatma par tab rasoighar ke khambhe par hath rakhkar
tumne prithwi ko adhar diya; aur duniya ko beche hue hathon ko
phir ek bar lauta lai mukt kar tab tumne kaha,
bhawishya ke liye di hui bhent bhawishya ko pahuncha do
khambhe par jhuki hui wo akashwani main ab tak nahin bhula
tumhein dehri ki shapath dilakar mainne nihora (bhuli nahin hongi)
meri reeDh par bhawishya ka ugr bhaar kyon rakhti ho?
ye chitr dekho aur ye wichitr dekho, ai yatharth,
phate asman ko tanka Dalne wala bijli ka suja kahan hai?
lekin hath ke udheDe jhangule ko site hue tumne kaha,
“tum aaj thake mande lag rahe ho; chalo hum ghumne chalen purab ko
6
ek bar asman nanha sa dhoop tukDa ban tumhare pairon ke pas
gir gaya aur kal ka prarambh ho gaya tumhari hatheli ki
lalaunhi rekhayen meri kalai par ugne lagi aur dishaon ka
prarambh hua kyon? kisaliye? ise na samajhte hue,
masti mein uchhala hua prawahi prarambh us prarambh mein hi mainne mahsusa
ant ka akarshan, kshitijon ko joDne wala yatharth astitw
aur raston ke donon or swapnon ko uchhalte hue
gaya jhapatta marte hue bhawishya ki disha mein, lekar ke pahle hi atal ka darshan
tum s bandh si rahin pichhe; nahin jhapti yatra ki dhaar mein
mujhe khatka tumhara sust, sukhasakt, swasthy ke liye lalayit hona
aur swapnon ki fijulkharchi khatm hone par rite hathon se ankhen band karte hue
baraglaya kuch bhi tab dhime qadam rakhti hui tum aage i,
aur boli, “tumhare uchhale un swapnon mein se ye ankurane wale swapn
mainne anchal mein ikattha kiye hain; unhen apne samarth hathon ka adhar do ”
7
ghupp andhere mein otaprot stnon ki dhamki dekar samuche jiwan ko
ujla kar dene ki tumhari shakti ka mainne anubhaw kiya hai;
aur pankhuDiyon mein se khilta jane wala maunmatt lasy,
uski shakti ko mainne mahsusa hai; katasraiya ke phulon ko masalne wala,
maroDe hue hothon se ainthne wala ghussa, hath bandhne wala;
akarwash indriyon ki duraradhy bandish; andhere par tapakne wali wasana ki thumri;
—in sab ki apar shakti mere pranon par arrakar gir paDi hai;
gir gaya hoon lekin lokne wale hath bhi tumhare hi hain, jhutpute ke
isiliye to main bhayankar ko ankh markar phir wapas
ata hoon tumhare pas; jakhmon ke manchihn dharan kar akaDte hue phir wapas
tumhare pas hi aata hoon mainne anamik ko taqid ki hai,
“tum beech mein na ana; ‘jiwan se ye mera prem kalah hai ’
jisne astitw ko bhoga hai wo nirakar par rijhega nahin ”
gir paDa hoon lekin lokne wale hath bhi tumhare hi hain, jhutpute ke
8
wo hamesha hi kone ke pas khaDa rahta hai; dukh ke pichhe chhipa rahta hai
wo mujhse bhi mila tha kashi se lautne par
raste ke kone ke pas ek pair par taulte hue khaDa tha,
‘hansne wala’ koDhi, wo mujhse bhi mila tha ajmer ke pas
shankar ke mandir ke pichhe, apni tarashi hui murti ke sine se
kan lagakar hirdai ki dhaDaknen sun raha tha; chindi lagakar
ji raha tha, shilpakar wo mujhse bhi mila tha
andha hokar pees raha tha bhukha hokar bo raha tha, munh ujale mein
wo tumse bhi mila tha, nandu ke janm ke samay bilkul jhutpute mein
lekin tumne use pahchana nahin, ye bahut achchha kiya
kaise gardan niche kiye sidha sada sa nikal gaya
phir bhi pagchihn ankit the; patthar mein gaD gaye the
lekin tumne use pahchana nahin, ye bahut achchha kiya!
uski pahchan dene wali jalti mahamudraon se tumhare nannhe munne ki suraksha ho
9
brahmdewta ke mandir ke samne wali wo ghunni chattan tumhein yaad hai?
wamkukshi karne wali mere bachpan mein uske sharir par
ek juhi ki lata bawri si wichri thi “tum stow mein itna tel kyon bharte ho?”
parsu chacha ki anguliyan jhaDne par ain madhya raat ko dadaji ne unhen
dahi bhat khilaya, aur baad mein ek Dola pahaD ke adhar se
bhenDawat ki or sarakne laga tha “yah hath saf karne ka kapDa yahan
keel par tangane ke liye kitni bar tumse kaha tha?
gyaneshwar ki samadhi ka dwar band karte samay “dwar khula hi hai; andar aiye
jo phaili bahon mein nahin aata wo chutki mein pakDa ja sakta hai,
ye tumne mujhe dikhaya hai prithwi par pair ropkar
tum aise hi khaDi raho akash ke hunkar ko tum jhunajhuna
bajakar dikhao do manushyon ki atmaon mein ek baDi diwar hoti hai
apni or ke un bhittichitron ki rakhsha karo; aur mrig ke tufan mein
ukhaD jane wale kal ke ankuron ko apni sanson ka adhar do
स्रोत :
पुस्तक : यह जनता अमर है (पृष्ठ 29)
रचनाकार : विंदा करंदीकर
प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
संस्करण : 2001
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.