उमड़ पड़ता है उद्दाम अभिलाषा से
लौट जाता है निर्लिप्त हताशा से
उन्हीं लहरों को छूते ही
बूढ़े हो जाते हैं बच्चे
खेल में मस्त निश्छल बालक
लौट जाता है घर-घर खेल खेलने
अबूझ दुःख से टूटकर बह जाता है वह
लहरों के साथ अपने यौवन में, वार्धक्य में—
लहरों को न रोक पाकर रोता है
सहसा बुझती सूर्य की लाली में
दिखते हैं सब पत्थर की मूर्तियों-जैसे
मूढ़ी-मूँगफली बेचने वाला, नव-विवाहित दम्पति
बूढ़े, बच्चे, युवक-युवतियाँ
न जाने किस शताब्दी से
गड़े खड़े है उस रेत पर
और समुद्र उन्हें ही देखता है
जैसे देख रहा हो
स्वप्न-जड़ित असंख्य क्षणों को
काले शॉल-सी मछुआरे की नाव लौट आती है
लहरों पर हिचकोले भरती
(लौटने का मतलब क्या है?)
अब कुछ देर में चाँदी के चाँद-सी मछलियाँ
जाल से झड़ पड़ेंगी रेत पर
जहाँ कई साम्राज्य की दलीलें, दस्तावेज़
फटी चिट्ठियों की तरह
असहाय उड़ते हैं, खोते हैं
अब कुछ देर में पत्थर की मूर्तियाँ
मंदिरों में लौट जाएँगी
(लौटने का मतलब क्या है?)
दुःख से, उदास मन से, अभिमान से, क्षुधा से,
क्षोभ से आनंद से, उल्लास से
टूटे ताम्रपट, फटे इतिहास के पृष्ठ
नमकीन पानी में कहाँ घुल जाते हैं
देख नहीं पाते वे
वे तो स्वयं को ही देखते रहते हैं
अपनी अंतरात्मा, अपनी परछाई अपनी रोशनी में
सुनते हैं लहरों में, घोंघों में, आसमान में
अपने दुःखों के विवृत गीत, जन्म-मृत्यु उलाँघ
अपने इहकाल आगमी काल की निस्संग शहनाई
किंतु समुद्र सबको देखता है (स्वयं को नहीं)
सारे गीत सुनता हैं, सारे सपनों के
इतिवृत्त, अंतिम भाग्य जानता है,
इसीलिए दुःख से टूट जाता है,
चूर-चूर हो जाता है
छितरा देता है ख़ुद को,
फेंक देता है, पसार देता है
पत्थर नहीं बनता, मूर्ति नहीं बनता, लौट नहीं जाता
बन जाता है समय, महाकाल
जिसकी अपलक आँखों में है
साँझ ही सवेरा।
- पुस्तक : लौट आने का समय
- रचनाकार : सीताकांत महापात्र
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
- संस्करण : 1994
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