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संबंध

sambandh

नीलाभ अश्क

नीलाभ अश्क

संबंध

नीलाभ अश्क

और अधिकनीलाभ अश्क

    शाम और यह मृत शहर।

    अब मुझे कोई एहसास नहीं होता।

    अपने यहाँ या कहीं, होने होने का एहसास

    भी नहीं।

    बाहर खिड़की से चाँदनी में चुप भीगते पेड़। और...

    गली में लगातार एक सिरे से दूसरे सिरे तक

    कोई अपनी पदचाप से

    नीरवता को जगाता हुआ...

    मेरा आकाश सिमट कर

    इस कमरे की दीवारों में क़ैद हो गया है

    और ऐसा महसूस होता है कि मैं किसी गुमनाम

    शहर के गुमनाम मुहल्ले के किसी कमरे में लेटा हूँ।

    ये चार दीवारें और एक छत किसी भी शहर की

    हो सकती हैं।

    पर वह क्या होता है, जो किसी को एक शहर

    से संबंधित करता है।

    मुझे कुछ मालूम नहीं। मेरे संबंध खो गए हैं।

    मैं इस कमरे के अँधेरे को अपनी देह

    अनायास समर्पित किए, अकेला लेटा हुआ हूँ!

    मेरी आँखों में एक कमरा अँधेरा,

    एक खिड़की और उससे दिखती चाँदनी

    और पेड़ भर जाते हैं।

    मैंने इस कमरे से बाहर की दुनिया पर

    अपना एकमात्र दरवाज़ा बंद कर लिया है।

    मुझे कुछ नहीं सूझता।

    यह अँधेरा मेरा दम घोंट रहा है।

    पर मुझे अँधेरे में उठ कर बत्ती जलाने से डर लगता है

    और मुझे सहसा यह लगता है कि पागल हो

    जाने से पहले ही मुझे यहाँ से भाग कर किसी रेस्तराँ

    या सार्वजनिक स्थान की भीड़ में। शराबख़ाने में।

    या फिर जनाक्रांत चौराहों में, ख़ुद को

    खो देना चाहिए।

    ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगा कर, व्यर्थ और

    ख़ुद को समाप्त करती हुई बहसों में भाग लेकर

    अपना अस्तित्व सिद्ध करना चाहिए।

    दोस्तों से मिलना चाहिए। या फिर उन परिचित

    बाज़ारू औरतों से, जो मेरी प्रतीक्षा

    शहर के उन बदनाम मुहल्लों या अँधेरी गलियों में

    कर रही होंगी।

    और अपने खोए हुए संबंध ढूँढ़ लेने चाहिए।

    पर मैं उठता नहीं हूँ।

    और लेटा रह जाता हूँ। लेटा रह जाता हूँ।

    मुझे इस अँधेरे में उठने से डर लगता है

    और मैं रुका हूँ कि अभी कोई

    आकर रोशनी जलाएगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुल जमा-1 (पृष्ठ 21)
    • रचनाकार : नीलाभ
    • प्रकाशन : शब्द प्रकाशन
    • संस्करण : 2012

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