समंदर की चीख़ : लहरों का शोर
samandar ki cheekh ha lahron ka shor
वह तो जल कर राख हो गया था
इधर
ख़ून
था
और हवा में
लटकती
हुई
रात
मेरे गिर्द चक्कर लगा रही थी ज़िंदगी
और
मौत के
प्रश्नचिह्न
बंद मुट्ठी का अँधेरा
कब तक तना रहेगा
आदमी तो सिर्फ़ दो मिनट
जीता है
सारी उम्र में
जब
पहली
किलकारी मारता है
झील नीली हो या काली
सुखने के बाद तलहटी पर
तड़पती सीपियाँ
मसख़री करता
सूर्य
सिर पर
खड़ा
रहता
है
आओ
कुछ
बातें
करें
कि
वक़्त
कट जाए।
- पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 440)
- संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2014
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