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सह-अनुभूति

sah anubhuti

विश्वंभरनाथ उपाध्याय

और अधिकविश्वंभरनाथ उपाध्याय

    यह भ्रम था कि तुम कहीं गए थे

    तुम जब रेलगाड़ी की खिड़की से झाँक रहे थे

    तब मैं साथ-साथ भाग रहा था

    अपने भूगोल बदलते हुए

    तुमने ग़ौर किया होगा कि तुममें अजीब उकताहट

    किसी तृप्ति के बीच उभरती है

    पर, मैं एक ध्यानबिंदु हूँ

    जो तुम्हारे वृत्त में थिरकता है

    और तुम्हारी रेखाओं में व्यतीत हो जाता है

    जहाँ तुम्हारी तरल-दृष्टि गड़ी होगी

    वहाँ मै था

    मैं अब द्रष्टा नहीं, दृश्य हो गया हूँ

    तुम्हारे लिए अपने को

    खेत-खलिहान, नदी, पर्वत में बदलता हुआ

    मैं शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध में

    ढलता हुआ विषयीकृत सत्ता-मात्र हूँ

    तुम्हारी तन्मात्राओं में तैरता हुआ

    एहसासों मे सराबोर!

    मैं यह मकान भी हूँ

    जिसमें तुम रहस्य की तरह चलती हो

    दर्पण में खिलते-हिलते प्रतिबिंबों के साथ

    तुम्हारे अमूर्त्त कटाक्ष

    अपनी स्थिति पर सोच-विचार की कताई-बुनाई क्रोशिए पर नियति की

    होने और कुछ होने के अंतराल को तानते हुए

    कब तक चलेगा यह दुर्दांत दुराव?

    अपने को सूँत कर, मुझे बहिर्गत करने के दावे

    सब मिथ्या हैं, सच!

    मैं वह ताना-बाना हूँ

    जिससे तुम निर्मित हो ताफ़्ता-सी!

    कहीं भी जाओ, मौजूद हूँ मर्म में

    अपने में अटनशील

    मेरे उन्माद की आहटें सुनिए

    और देखिए, कोई अनाहत नाद-सा उठ रहा है

    तुम्हारे उत्तेजित आधार में

    दुनियावी दुश्वारियों में

    रबाब से बजते तुम्हारे बदन की

    झंकार मैं हूँ

    संज्ञा-सर्वनामों के विलोप से

    इस अकथ्यता पर

    प्रफुल्लित-विस्मित!

    स्रोत :
    • पुस्तक : निषेध के बाद (पृष्ठ 95)
    • संपादक : दिविक रमेश
    • रचनाकार : विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
    • प्रकाशन : विक्रांत प्रेस
    • संस्करण : 1981

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