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सच की बेला

sach ki bela

अनुवाद : हुकुमचंद राजपाल

जसबीर सिंह आहलूवालिया

और अधिकजसबीर सिंह आहलूवालिया

    जब लोगों ने सच की बात कही

    हमने झूठ का नारा लगाया था।

    झील के रुके पानी में

    एक पत्थर गिरा दिया था।

    नेता जी के जलसे में

    ‘गो बैक’ का हल्ला किया था।

    तंबुओं को अग्नि पर चढ़ाया था

    गड़बड़ का रंग जमाया था।

    जब दावानल की ख़बर फैली

    सब धरती लोकाई काँप उठी

    फिर राजभवन से नेता जी ने

    ‘सिर क़लम करो’ फ़रमाया था।

    हमें बीच मैदान लाया गया

    मुँह काला कर ठहराया गया

    झील के पानी से निकालकर

    फिर बारी-बारी लोगों से

    पत्थरों की वर्षा की गई।

    हमारे शीश पर आरे चलते रहे

    हम शब्द वफ़ा का पढते रहे।

    चढ़ सूली भी मुस्कुराना पड़ा

    चढ़ हिंदी फ़िल्म के हीरो की तरह

    हम सही-सलामत बच निकले

    हम बहती नदी से बाहर

    कोई झूठ नहीं कोई सच नहीं

    हमने अनहद राग सुनाया था।

    हमें देख बहुत हैरान हुई

    हमारा नारा चढ़ प्रवान (स्वीकार) हुआ

    सच खंड में भी सम्मान मिला

    हमारी फ़ोटो अख़बार में छपी

    बुत चौराहे लाया गया

    फिर नेता जी के कर कमलों से

    हमारे दिवस भी ख़ूब मनाए गए

    हम भीड़ में शामिल लज्जित हुए।

    आज बेला सच की है

    फिर प्रेम खेलने के चाव में

    आज सच का नारा लगाएँगे

    झील के ठहरे पानी में

    एक पत्थर फेंक दिखाएँगे

    यह आवागमन है पीड़ा का

    पीड़ा के घर ही आएँगे

    मुक्ति के दरवाज़े जाएँगे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मेरी प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 26)
    • रचनाकार : जसबीर सिंह आहलूवालिया
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2002

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