उसके दोनों कंधों पर
बेहद ख़ुशी-ख़ुशी बैठते हैं वे
बोलते-बतियाते हैं
सुनते हैं वह गीत
और समझते भी हैं
जिसे वह एकांत में गुनगुनाती है
थके पहाड़ों के लिए
और साथ ही अभी-अभी जन्मे
नन्हे पौधों के लिए
वैसे तो कुल ग्यारह बरस की है वह
लेकिन उसकी थकान पहाड़ों की तरह
करोड़ों-करोड़ों बरस पुरानी है
वह उतनी ही सुंदर है हमारे लिए
जितना कि कश्मीर
हम उतने कष्टदायी हैं उसके लिए
जितना कि उसका नशेड़ी बाप
यही वजह है कि हमें देखते ही
उसके कंधों के दोनों कबूतर
माप लेते हैं हमारी ऊँचाई
और दुनिया की सबसे निरीह कही जाने वाली आँखों से
मालूम कर लेते हैं हमारे दाँतों का पैनापन
वह एकटक देखती है हमें
जैसे बता रही हो कि
उसकी माँ ने उसे पहला अक्षर
अ से अब्बा नहीं,
अ से अज़ान सिखाया
दूसरा अक्षर
आ से आदमी नहीं,
आ से आज़ादी सिखाया
कुछ अक्षर जो कहीं-कहीं गिरे थे
उसने उनको उठा लिया
और कुछ बदलते हुए कहा—
क से कलम नहीं,
क से कबूतर
न से नल नहीं,
न से नदी
प से पढ़ाई नहीं,
प से पहाड़
इस तरह कबूतर, नदी, पहाड़
उसकी साँसों में उतरते चले गए
और वह अज़ान की ख़ुशबू की तरह
आज़ाद होती चली गई
हम सुनते हैं सब कुछ
घोड़े की नाल पर बैठे हुए
जो लगाम से नहीं
आरिफ़ की आवाज़ से संचालित होता है
रुख़साना तब्बसुम चबाती हुई
ओझल हो जाती है
कबूतर, नदी, पहाड़ के बीच…!
- रचनाकार : लक्ष्मण गुप्त
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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