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रोज़ सुबह होती है

roz subah hoti hai

साहिल परमार

साहिल परमार

रोज़ सुबह होती है

साहिल परमार

और अधिकसाहिल परमार

    रोज़ सुबह होती है

    और मैं

    बिस्तर में छिन्न-भिन्न हो चुके

    मेरे अंगों को असेंबल करके

    कूच करता हूँ,

    प्रभात की पहली किरण

    हर समय मुझ पर टूट पड़ने के लिए

    तैयार रहती है

    उससे कटते, चिरते, लहूलुहान होते हुए भी

    मैं शुरू रखता हूँ मेरा सफ़र,

    क्योंकि जानता हूँ मैं कि

    हर रोज़ यहाँ

    एक ज़बरदस्त मुक़ाबला है।

    दोपहर की हवा

    भारी-भरकम हथौड़े की तरह

    टकराती है मेरे कंधों से

    और इस महानगर की भीड़ में से

    शाम होते-होते मैं

    निकाल लेता हूँ स्वयं को अलग

    मनुष्य होने का अर्थ

    मैं समझता हूँ अच्छे से

    लेकिन फिर भी

    मेरी तरह

    छिन्न-भिन्न हुए ये मनुष्य

    मुझे मनुष्य के रूप में नहीं स्वीकारते

    उस समय मन होता है कि

    दिन ख़त्म होते-होते

    बिस्तर में छिन्न-भिन्न हुए मेरे अंगों को

    अब मैं असेंबल नहीं करूँगा

    लेकिन फिर भी

    रोज़ सुबह होती है

    और मैं...

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुजराती दलित कविता (पृष्ठ 154)
    • संपादक : अनुवाद एवं संपादन : मालिनी गौतम
    • रचनाकार : साहिल परमार
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2022

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