एक
मेरा जन्म सन् 1860-61 में हुआ था शायद
ठीक-ठीक कह नहीं सकती
माँ-बाबा को ठीक-ठीक याद नहीं
लड़कियों के जन्म, साल, दिन याद रखना इतना तो ज़रूरी नहीं
उम्र का क्या करना रवि,
बस प्रेम करो
मैं तुमसे मिलने उस शताब्दी से इस शताब्दी में आई हूँ
श्वेत लाल पाढ़ की रेशे वाली साड़ी लपेटे प्रेम के मंत्रोच्चार से संकल्पित थी
तुमने दृष्टि पड़ते ही पूछा था—कनककेशिनी!
क्या तुम मेरा मन बाँधने आई हो!
हाँ रवि,
तुम मुझसे प्रेम क्यूँ नहीं करते?
दो
नौका चढ़कर जाते हुए
हृदय में क्या कोई मरोड़ न उठी
ओ निष्ठुर नायक!
मैं रतन
तुम्हारी क्षुद्र दुख की संगिनी
इस निरवधि विरह में धक्का देते हुए
क्या तुम्हारा मन
कभी धक्क से न किया!
अपना मन ही कहाँ जान पाता है कोई
ओ प्रिय रवि
तुमने ऐसे नायक क्यों गढ़े?
जो प्रेम के लिए क्षण भर न ठहर सके
किस अधिकार से रोक लूँ
किस अधिकार से कुछ कहूँ
किस अधिकार से अपने प्रेम का अधिकार माँग लूँ
किस साधिकार से कवि?
तीन
वैधव्य ओढ़े विनोदिनी को
विनोद करने का अधिकार
तब समाज ने कब दिया!
स्त्री का रूप ही जब सर्वोपरि हो
उसकी बुद्धि और गुण से डरा समाज भयाक्रांत होता
तुमने उस सामाजिक निर्णय का
उपहास उड़ाया रवि!!
तुमने मुझे सब की आँखों की किरकिरी बनाया
तुम आलोचक की कलम की नोक पर टाँगे गए
अनेक शताब्दी पार मनुज ध्वनि को स्वर मिला
मैं सदियों से मुक्त, उपेक्षित, प्रेमिल रागिनी तुम्हारी, तुम्हारा ही स्वर हूँ
अपने अंतस् में अंकित करो मुझे
अपने कंठ में बसाओ मुझे।
चार
मन के बहुत भीतर कहीं
एक इच्छा रही रवि
अपनी नौका जैसी आँखों से
मुझे पार करा दो अनंत सागर
मेरी मृणाल सम भुजवल्लरी
तुम्हारे गले से लिपटने को आतुर
तुम्हारा स्वर हवा में घुलने से पूर्व
मेरे अधरों पर आ बिखरे
म्लान मुख पर कांति आई थी सोचते ही
मेरी उँगलियाँ
तुम्हारे गले के स्पर्श को इच्छुक
इतने सारे छंद तुम्हारे पास
किसी में भी बाँध लो मुझे
रुधिर दौड़ने से पहले प्रेम दौड़े देह में
प्रेम में तुमने मेरा नाम परिवर्तन किया
अन्ना बन गई 'नलिनी'
प्रेम में नाम ही नहीं, अस्तित्व भी बदल गया था कवि
मैंने भी तुम्हारा नाम प्रेम में बदल दिया था ‘रवि’
मैंने तुम्हारे चुंबन और स्नेहसिक्त आलिंगन के लिए
अपने अनेक मिथकीय पात्रों का सहारा लिया।
क्या किसी भी संस्कृति में
प्रेम, चुंबन, आलिंगन इतना अपरिहार्य है कवि?
पाँच
जब उड़ेलने को अपमान कम पड़ने लगे
वही जन तब मान की चादर लपेटे आते
जिस पर फेंके गए पत्थर भी टूट कर माणिक में बदल जाए
तब ऐसी प्रेयसी
प्रेयसी नहीं, प्रश्न बनकर सम्मुख आती
दिल से ज़्यादा दिमाग़ में रहती धनक से
कवि-रवि की महामाया हो या दामिनी
सब अपने मन की स्वामिनी
सांसारिक दृष्टि से विफल, प्रेम में
जो है ध्यान में, वही प्राण में
व्यक्ति मन की मुक्ति
व्यक्ति स्वातंत्र्य की चेतना निहित हो प्रेम में हे मेरे सुंदर!
प्राचीन मूल्यों को नष्ट करते हुए
मैं तुम्हारे उदर-मार्ग से नहीं
मस्तिष्क-मार्ग से
हृदय में उतरना चाहती मेरे सुंदर
ऐसी दुनिया तब होगी कितनी सुंदर!
छह
इतनी ही दूरी रही कहन में
इतना ही पास रहे, परिहास में
जितना शेष विरह में रह, रह जाता
जैसे तुमसे पहले तुम्हारी छाया दिखी
मुझसे पहले मुझे 'हम' दिखे थे
मुझे इतना ही रंग दो प्रिय
मैं, मैं न रहूँ
सात
स्वप्नों का आना चाक्षुष भाव है
या इंद्रियों की सांकेतिकता
कैसे जान पाऊँगी रवि!
स्वप्न टूट जाता है कुछ ही समय में,
तब कहीं कुछ नहीं होता है
निराश्रित हृदय को कब तक निरखोगे कवि!
फूलों के रंग उनके अंतस की उमंग दर्शाते
पकी हुई धूप
प्रगाढ़ता धरती से अंतरंग संबंधों की
छाया, कोमल भाव
जो नहीं दिख रहा वह वायु है
वायु में घुला प्रेम है
महसूस करो इंद्रियों से उसे
तब जान पाओगे
जाते समय, जाने का मन क्यूँ नहीं होता
आठ
भाषा में भाषातीत
शब्दों से आशातीत
पुराणों से पुरातन
नित नूतन
सचेतन हृदय की इंगित भाषा
कहते-समझते हो रवि!
पुरुष व्यवस्था में जब
स्त्री को दुख पाना ही
गर्व का विषय बने
हरे रंगों को हरा कह कर
प्रमाणित किया जा सकता है
मृत्यु को मरकर किसने प्रमाणित किया?
मातृत्व वेदना के शोक का रंग अदृश्य होता
जैसे अनेक दुख की लिपि मौन
वैसे अनगिन शोक का वर्ण संयम है
ऐसी विधायी-व्यवस्था में
कवि, तुमने उन स्त्रियों के लिए भी बिगुल बजाए
जिनके लिए कभी
किसी मांगलिक बेला में
न हुआ शंखनाद
और ना ही निकाली गई उलूक ध्वनि
जिन्हें रखा गया भवन के किसी कोने में
'आस का दीप' बना कर
रात भर टिमटिमाने।
- रचनाकार : घुँघरू परमार
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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