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रवींद्रनाथ

ravindrnath

अनुवाद : उपेंद्रकुमार दास

यदुनाथ दाश महापात्र

और अधिकयदुनाथ दाश महापात्र

    विश्व ने आज पथ खो दिया है

    अँधेरा छा गया है उसमें

    हे कवि, भिक्षा माँगता हूँ मैं तुमसे

    आकर आलोक-वारि बरसाओ

    फागुन के निशाकाश में चन्द्रमा के समान

    अमिय प्रकाश से ज्योत्स्ना बरसाकर

    सागर की छाती पर मधुपुर बसाकर

    मद्र तान से धरा को थर्राकर

    पागल के समान कंठ में भाषा भरकर

    आलोकमयी आँखो में आशा भरकर

    प्रांतर में नवीन फूल खिलाकर

    तटिनी तट को चित्रमय करके

    तुम आओगे विश्व-कवि!

    मैं बैठा हूँ तुम्हारी प्रतीक्षा में

    अपलक आँखों से

    विश्व ने आज पथ खो दिया है।

    विश्व-कवि, तुम्हारा ही है यह सागर-तीर

    सुगंधित पुष्प, तुंग गिरि-शृंग

    स्वस्थ मृदुगति तटिनी

    दिवस के अंत में चंद्र-तारकों से परिपूर्ण

    सुनहरे धान के लहलहाते खेत

    नील झरने, हल्के श्वेत मेघ

    तुम हो दार्शनिक महामानव

    तुम्हारे नाम को आज कमल भी चूम रहे हैं।

    हम बैठे हैं हाथ में लिए स्वर्ण थाली

    पूर्ण दीप, बेले-फूलों की माला

    पद-रज देकर, अंधकार को हटाकर

    जगत् के पाप को शांत करो!

    मौलसिरी के नीचे पूजा की वेदी सजाकर

    विजन नदी-तट पर हम आज तुम्हारा आह्वान कर रहे हैं

    अर्द्ध-मृत मनुष्यों को प्राण दो

    हमारे कंठ में गान भर दो!

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 91)
    • रचनाकार : यदुनाथ दाश महापात्र
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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