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राजधानी में

rajdhani mein

ज्ञानेंद्रपति

ज्ञानेंद्रपति

राजधानी में

ज्ञानेंद्रपति

दिल्ली में

पत्र-समूह के मालिक

उस धन्नासेठ

की बड़ी-सी टेबुल पर

कुर्सी की दाईं बाँह के क़रीब-क़रीब सामने

हाथ की आसान पहुँच के भीतर

ररखा है जो पिन-कुशन एक

काग़ज़ों में नत्थी होने को उद्यत पिनों से भरा

उसके मुहाने पर चुंबक है

गुच्छ के गुच्छ लौहपिनों को वक्ष से भींच रखनेवाला

खींच रखनेवाला

वह केवल लौहपिनों को ही नहीं भींचता

लौहलेखनियों को भी खींचता है

अयस्कांतमणि है वह

शलभों की तरह दूर-दूर से आकर्षित टूटते हैं लेखक जीविकान्वेषी

और बड़-अनबड़ क़स्बे

छोटे-मँझोले शहर

सूने हो जाते हैं अपने लेखकों से

कहाँ तो उनका हाल लिखते, अब हाल-चाल भी नहीं पूछते

उन क़स्बों-शहरों के अपने लेखक

लौहलेखनियों वाले

जो गुच्छ-के-गुच्छ

मुखचुंबी नहीं चुंबकमुख पिन-कुशन से लौहपिनों की तरह

खिंचे-भिंचे पड़े हैं

अँगूठियों-भरी उँगलियों उठ, काग़ज़ों में नत्थी होने को उद्यत

दाएँ हाथ की आसान पहुँच के भीतर

पत्र-समूह के मालिक धन्नासेठ की

बड़ी-सी टेबुल पर

राजधानी में

स्रोत :
  • पुस्तक : संशयात्मा (पृष्ठ 34)
  • रचनाकार : ज्ञानेंद्रपति
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 2016

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