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राजकमल को याद करते हुए

rajakmal ko yaad karte hue

गौतम राजऋषि

गौतम राजऋषि

राजकमल को याद करते हुए

गौतम राजऋषि

और अधिकगौतम राजऋषि

    होश की तीसरी दहलीज़ थी वो

    हाँ! तीसरी ही तो थी,

    जब तुम्हारी मुक्ति का प्रसंग

    कुल-बुलाया था पहली बार

    मेरे भीतर

    अपनी तमाम तिल-मिलाहट लिए

    दहकते लावे-सा

    पैवस्त होता हुआ

    वज़ूद की तलहट्टियों में

    फिर कहाँ लाँघ पाया हूँ

    कोई और दहलीज़ होश की...

    सुना है,

    ज़िंदगी भर चलती ज़िंदगी में

    आती हैं

    आठ दहलीज़ें होश की

    तुम्हारे मुक्ति-प्रसंग के

    उन आठ प्रसंगों की भाँति ही

    सच कहूँ,

    जुड़ तो गया था तुमसे

    पहली दहलीज़ पर ही

    अपने होश की,

    जाना था जब

    कि

    दो बेटियों के बाद उकताई माँ

    गई थी कोबला माँगने

    एक बेटे की ख़ातिर

    उग्रतारा के द्वारे...

    ...कैसा संयोग था वो विचित्र!

    विचित्र ही तो था

    कि

    पुत्र-कामना ले गई थी माँ को

    तुम्हारे पड़ोस में

    तुम्हारी ही नीलकाय उग्रतारा के द्वारे

    और

    जुड़ा मैं तुमसे

    तुम्हें जानने से भी पहले

    तुम्हें समझने से भी पूर्व

    वो दूसरी दहलीज़ थी

    जब होश की उन अनगिन बेचैन रातों में

    सोता था मैं

    सोचता हुआ अक्सर

    सुबह होगी और यह शहर

    मेरा दोस्त हो जाएगा

    कहाँ जानता था

    वर्षों पहले कह गए थे तुम

    ठीक यही बात

    अपनी किसी सुलगती कविता में

    ...और जब जाना,

    गिरा उछल कर सहसा ही

    तीसरी दहलीज़ पर

    फिर कभी उठने के लिए

    इस अकालबेला में

    ख़ुद की आडिट रिपोर्ट सहेजे

    तुम्हारे प्रसंगों में

    अपनी मुक्ति ढूँढ़ता-फिरता

    कहाँ लाँघ पाऊँगा मैं

    कोई और दहलीज़

    अब होश की...

    स्रोत :
    • रचनाकार : गौतम राजऋषि
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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