लोग भूल गए हैं एक तरह के डर को जिसका कुछ उपाय था
एक और तरह का डर अब वे जानते हैं जिसका कारण भी नहीं पता
इसमें एक तरह की ख़ुशी है
जो एक नीरस ज़िंदगी में कोई सनसनी आने पर होती है
कभी किसी को मौत की ख़बर सुनकर मुस्कुरा उठते हुए
अनजाने में देखा होगा
वह एक तरह की अनायास ख़ुशी होती है
मौत का डर अपने से दूर चले जाने की राहत की
और फिर ध्यान उसी वक़्त कभी-कभी ऐसे बँट जाता है कि हम
मरने वाले की तक़लीफ़ कभी
जान सकने के लायक़ नहीं रह जाते
रोज़ कुछ और लोग यह भुतही मुस्कान लिए हुए सामने से जाते हैं
जब वह दुबारा आएँगे देखना वे मरे हुए हैं
और जब तिबारा आएँगे तो भ्रम होगा कि नहीं मरे हुए नहीं
यों ही वे आते-जाते रहेंगे
और तुम देखकर बार-बार यह दृश्य आपस में कहोगे हम ऊब गए
एक ऊब और भुतही मुस्कान दोनों मिलकर
एक ख़ुशी और एक बेफ़िक्री बनते हैं
आज के समाज का मानस यही है तुम कहते हो इस कविता में
बग़ैर यह जाने कि तुम कितना कम इस समाज को जानते हो
कितना कम जानते हो तुम उस डर के कारण को
आज की संस्कृति का जो मूल स्रोत है
और क्या जानते हो तुम अतीत को?
तुम नहीं जानते तुम्हारे पुरखे कितने वर्ष हुए कहाँ-कहाँ थे
पीछे चलते हुए
तुम ठहर जाते हो सबसे समृद्ध और शक्तिवान
अपने किसी पूर्वज पर
उसके पीछे चलो
वह कैसे धनी हुआ किस बड़े अत्याचारी का गुमाश्ता बनकर
उनका भी बाप कहाँ रद्दी बीनता था
और किस-किसके सामने गिड़गिड़ाता था
तुम्हारा आदिपुरुष एक लावारिस बच्चे का दुत्कार से भरा
जीवन जीकर कैसे बड़ा हुआ
तुम्हें नहीं मालूम
तुम्हें नहीं मालूम कितना था वह धर्मात्मा
और उसके प्राणों ने किस तरह की यातनाएँ उठाई थीं
यात्रा में घर से निकलते ही एक सुख होता है
और शहर छोड़ते ही पश्चात्ताप एक
जिनको तुम पीछे छोड़ आए हो उनसे तुम्हारा व्यवहार उचित नहीं था
निर्दय था लोभी था
उनके साथ रहते हुए निजहित में लिप्त
और वे केवल छूट नहीं पाने की दुविधा में तुम्हारे साथ रहते थे
अब भी क्या मुक्त हैं तुम्हारे जाने पर वे?
नहीं
जानते हैं कि लौटकर तुम फिर से
उसी रुग्ण रिश्ते को फिर से बनाओगे
कहते हैं कि हम बहुत बेचारे हैं
क्रोध इस घर में न करो
टूटे हुए बच्चों के सहारे क्रोध से टूट जाते हैं
समय ही करेगा दुःख दूर यों कहते हो
आने वाला समय कितने अन्यायों के बोझ से लदा हुआ इस दुःख को काटेगा
अन्याय के शिकार के लिए मन में समाज के जगह नहीं होगी तो
एक घनी नफ़रत और साधारण लोगों से बदले की भावना
इन तमाम बूचे उटंगे मकानों को बनाती चली जाती है
यह संस्कृति इसी तरह के शहर गढ़ेगी
हम उपन्यास में बात मानव की करेंगे
और कभी बता नहीं पाएँगे
सूखी टाँगें घसीटकर खंभे के पास में आकर बैठे हुए
लड़के के सामने पड़े हुए तसले का अर्थ
हम लिखते हैं कि
उसकी स्मृतियों में फ़िलहाल एक चीख़ और गिड़गिड़ाहट की हिंसा है
उसकी आँखों में कल की छीना-झपटी और भागमभाग का पैबंद इतिहास
उसके भीतर शब्दरहित भय और ज़ख़्म आग है
यह तो हम लिखते हैं पर उस व्यक्ति में हैं जो शब्द वे हम जानते नहीं
जो शब्द हम जानते हैं उसकी अभिव्यक्ति नहीं विज्ञापन हमारा है
कितनी ईमानदारी से देखती है
वह लड़की दर्पण
वह लड़की जो बहुत सुंदर नहीं है पर कुछ उसमें सुंदर है
कौन पहचानेगा कि आख़िर वह क्या है जो सुंदर है?
वह ख़ुद
वह ख़ुद शीशे में जो पढ़ेगी वही सही होगा
नहीं तो और जो होगा
वह किसी बड़े राष्ट्र द्वारा
आदिवासियों में पाई जाने वाली किसी विचित्रता का होवेगा आविष्कार
दुनिया ऐसे दौर से गुजर रही है जिसमें
हर नया शासक पुराने के पापों को आदर्श मानता
और जन वंचित जन जो कुछ भी करते हैं कामधाम रागरंग
वह ऐसे शासक के विरुद्ध ही होता है
यह संस्कृति उसको पोसती है जो सत्य से विरक्त है
देह से सशक्त और दानशील धीर है
भड़ककर एक बार जो उग्र हो उसे तुरंत मार देती है
अपने-अपने क़स्बों का नाम न लेकर वे लखनऊ का नाम लेते हैं
जहाँ वे नौकरी करने आए थे
जैसे वहीं पैदा हुए और बड़े हुए हों
क्योंकि वह किसी कदर आधुनिक बनना है
और फिर दिल्ली उन्हें समोकर अथाह में आधुनिक होने की फ़िक्र मिटा देती है
दूर के नगर से पत्र आया है
लिखा है कि गुड्डन की माँ का स्वर्गवास हो गया है
नहीं लिखा यह कि बीस वर्ष से विधवा थी वह
उसके बीस वर्ष कोई नहीं लिखता क्योंकि एक साथ बीस वर्ष हैं अब वे
भाषा की बधिया हमेशा वक़्त के सामने बैठ जाती है
छुओ पोस्टकार्ड को उसमें दो टूक संदर्भहीन समाचार फिर पढ़ो
और कोशिश करो कि उस नगर के अकाल का कोई अता-पता
लिपि से ही मिल जाए
नहीं वह सुथरी है साफ़ है सधी है अजब से तरीक़े से
लिखने वाला मानो मर चुका था बच रहा था केवल धीरज
देखो अपने बच्चों के दुख को देखो
जब उनकी देह में तुम देखते होगे अपने को देखना
वही मुद्राएँ जो तुम्हारी हैं बार-बार उन पर आ जाती हैं
हड्डियाँ जिससे वे बने हैं—एक परिवार की
और बचपन के गुदगुदे हाथ की हल्की-सी झलक भी
नाच-गाना और भोग-विलास
फ़ुरसती वर्ग के लड़के-लड़कियों के शग़ल बनते हैं।
फिर इनका रौब घट जाता है और ये समाज में वहीं कहीं पैठ
जाते हैं बिखराव बरबादी और हिंसा बनकर
एक बहुत बड़े षड्यंत्र के बीच में अपने घर में रहने वालों से रिश्ते बनाओ
और सुधारो
घर में रह सकते नहीं हो मगर सारा दिन
कुछ दुःख बाहर से ले आएँगे तुम्हारे घर उस घर के लोग
और लोगों को भी बार-बार घर से बाहर जाना होगा
शिक्षा विभाग ने कुछ दिन पहले ही घोषित किया है
छात्रवृत्ति के लिए अर्हता में यह भी शामिल हो
कि छात्र के पिता की हत्या हो गई है
सावधान, अपनी हत्या का उसे एकमात्र साक्षी मत बनने दो
एकमात्र साक्षी जो होगा वह जल्दी ही मार दिया जाएगा।
- पुस्तक : रघुवीर सहाय संचयिता (पृष्ठ 88)
- संपादक : कृष्ण कुमार
- रचनाकार : रघुवीर सहाय
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2003
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