पृथ्वी की आकृति क्या है? बताने चले आते हो न!
रक्त से भी गाढ़ी हो चली
सूख चुकी साहित्य की स्याही के ज़रिए
अगर मैं न जानना चाहूँ
फिर भी फूँकते हो कान में मेरे सम्मोहन
तुम कौन हो? क्या हो?
कहते हो कि नायिका हूँ।
तुम्हारी अनन्य कथाओं की।
तुमने कब का लिख कर रख लिया था मेरा प्रारब्ध मेरा भाग्य
तुम न ब्रह्मा न भाग्यविधाता
मात्र एक दृश्य नहीं समस्त कथानक का वितान
मेरी अनुभव पीठिका पर ही क्यों रचा?
मेरा जीवन कैसे बिना जाने मुझे मेरे नाम को
सौ बरस पहले
बिना मेरी अनुमति लिए! बग़ैर मुझे श्रेय दिए!
मेरी जीवन-कथा को छूते ही छेड़ देते हो टीस
कथाकार नहीं संगीतकार हो
मैं पीड़ा के अनुराग से भरा एक सितार हूँ
तुम्हारे भरे पूरे कक्ष में
जिस पर तुम हवा का राग कुशलता से साधते हो
रचते हो शब्द-अट्टालिकाएँ
इतनी विशाल इतनी भव्य कि स्तब्ध होती हूँ!
मानो यह मेरी भूमि नहीं, पुराकाल का बंगाल है।
तात की धोती लपेटे
एक कोई ‘मृणाल’ है जो थैला लटकाए
समुद्रतट की रेत पर चलती मिटाए चली जाती है पीछे लहर उसके पगचिह्न,
मेरी पीड़ा के उपचार की राह दिखाए जाती है
समुद्रस्तम्भ की भांति अँधेरे में दृष्टि को देती है विस्तार
तुम्हारी मृणाल तुम ही हो ठाकुर!
तुम्हारी मृणाल मैं ही हूँ ठाकुर!
हम दोनों एक ही नाम में विलीन होते हैं सौ सालों के अंतराल पर
ठीक-ठीक वह कहते हो तुम
जो मैंने तुम्हें बिना सुने, कल रात ही कहा एक स्त्री से।
“मुझे अपने आत्म सम्मान तक पहुँचने में सोलह साल लग गए”
बस एक बरस ही तो आगे है तुम्हारी मृणाल मेरी मृणाल से
मुझे रचा है तुमने अपनी कथाओं में
अनेक नामों में पुकारा है मुझे तुम्हारे नायकों ने
कि मृणाल, कि कोई सुचरिता
कि बिनोदिनी कि कोई चारुलता।
कोई नाम पुकारोगे-पुकारोगे तुम मुझे ही।
- रचनाकार : प्रिया वर्मा
- प्रकाशन : समकालीन जनमत
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