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टैगोर

tagore

यह कौन है? जो ज़िंदगी को योग्यतम बना गया

यह कौन मेरी ज़िंदगी की हर अदा पे मर गया

महाऋषि टैगोर! तुम्हारा जीवन बहार है।

बहार है, नहीं नहीं, बहार का श्रृंगार है

प्रथम तुम ही हो तो ज़िंदगी ही खिल उठी

और पुष्प हर श्मशान में बाग़-बाग़ हो गए

तुम रूप हो और प्रीत हो, तुम ज़िंदगी के गीत हो

आँखें नज़ारे भोगतीं राग कान में घुल पड़े

बीसवीं सदी तो थी अभी बारह मास की छोकरी

लेकिन कविवर! काव्य कौतुक में तुम्हारे जान थी

तुम सत्यम, तुम सुंदरम, शिवम है वाणी तेरी

तेरी कला तो साँझ का भूचाल है, तूफ़ान है

काँटों के आँगन में भी तूने रोप दी सुगंध है।

हे कवि! तुम अमावस में रजनी के दिनेश हो

तुम ज्ञान और व्यवहार की बेरोक पगडंडी बने

और तीन लोकों के लिए तुम भारतीय संदेश हो

तेरी कला की लौ तपिश से, सब ज़जीरें ढल गईं

और प्राणों के इस साज में सितार बनकर सजी

अंधा ज़माना चीख़ता दिन में ये अँधेरे हैं क्या

कि झोंपड़ी को महल में से किस तरह लौ गई

तूने श्रमिक स्नेह को मंज़िल का लक्ष्य दिखा दिया

प्रत्येक अनाथ के नाथ तूने ममता को लुटा दिया

मुक्तधारा की कला के आँसुओं को देखकर

यह जिंदगी की प्यास कैसे पानी-पानी हो गई

भूखे पत्थर खोज कर ब्रह्मांड का गम खा गए

और नेत्रपूजा नाचती वह स्वयं पूजा हो गई

‘गीतांजलि' गीता मनुजता का ख़जाना है यहाँ

या कौरवों की हर सुबह को शाम का संदेश है

तेरी कला मुर्दों की ख़ातिर, जिंदगी का जाम है

वहाँ शमा की क्या ज़रूरत, जहाँ तेरा कलाम है

तुम प्राणियो हो रहस्य, मनुज की आवाज़ हो

यह स्नेह एक संघर्ष है, जीत है हार है

आज़ाद हवा की तरह तेरी कला के सामने

रंग की, धर्म की, देश की दीवार है

समय और मौत बार-बार नमस्कार कर रहे

कि ऋषि यह ज़िंदगी की आत्मा का ज्वार है

तेरी कला और ज़िंदगी का भेद भी दिखा रहा

कि कला आखिर ज़िंदगी और ज़िंदगी टैगोर है।

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 276)
  • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
  • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2014

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