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पूरब के हैं हम

purab ke hain hum

चंद्रेश्वर

चंद्रेश्वर

पूरब के हैं हम

चंद्रेश्वर

और अधिकचंद्रेश्वर

    पूरब के हैं हम

    हर पश्चिम का होता है

    एक पूरब

    हर पूरब का होता है

    एक पश्चिम

    हम गहरा ताल्लुक़ रखते हैं

    अपने पश्चिम से

    हम जाकर बस जाते हैं

    पश्चिम में

    वहाँ रोज़ी-रोटी है हमारी

    हम जीवन भर नहीं बिसरा पाते

    तमाम सुखों के बाद भी

    अपना पूरब

    जिस दिन मरेगा हमारे भीतर का पूरब

    मुर्दा हो जाएँगे हम

    ज़िंदा ही

    कई पीढ़ियों बाद भी

    पहचान लिए जाते हैं हम

    अपनी बोलचाल

    भाव-भंगिमा, रहन-सहन

    खान-पान के चलते

    जब पहचान लिए जाते हैं तो

    धकिया दिए जाते हैं हम

    हम बार-बार गिरकर भी

    पोंछ लेते हैं अपनी

    पीठ की धूल

    हम छुपा नहीं पाते

    अपने भीतर का शूल

    हम कुछ रेघाकर बोलते हैं

    हम कुछ गाकर बोलते हैं

    हम बोलते-बोलते रो देते हैं

    हम रोते-रोते हँस देते हैं

    हम लड़-झगड़ लेते हैं

    हम उधार चुका देते हैं

    हम मलाल नहीं पालते

    हमेशा के लिए

    हम भावुक होते हैं ज़्यादा

    दूर रहते हैं

    महीन दाँव-पेंच से

    हमारे चेहरे से ही पढ़ा जा सकता है

    हमारा दिल

    दिल टँका रहता है हमारा

    हमारे चेहरे पर

    पूरबिए करते हैं यक़ीन

    सपाट बयानी में

    वे करते है खोज

    सरल मार्ग की

    वे पसीना बहाने या

    रक्त देने में अपना

    नहीं रहते पीछे कभी

    वे अपने हुनर से छा जाते हैं

    क़स्बों से लेकर राजधानियों तक में

    पश्चिम जितनी ही करता है

    घृणा उनसे

    वे ज़रूरत बनते जाते हैं

    उनकी

    वे चाहते हुए भी

    दिख जाते हैं अक्खड़

    वे चाहते हुए भी

    बने रहते हैं सीधे

    निर्गुण नस-नस में बसा है उनके

    उसी में समाया हुआ है

    उनका पीढ़ियों का दुःख

    उसी में समाया है उनका

    क़तरा भर सुख

    उनकी मस्ती

    क़तरा भर!

    स्रोत :
    • रचनाकार : चंद्रेश्वर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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