रात भर सुख से सोया,
मुँह अँधेरे
नींद खुली।
कुछ देर प्रतीक्षा में रहा कि
कि शायद नींद फिर से चली आए।
नींद क्या टूटी कि
दूर से एकाकी
किसी कौवे की काँव-काँव कान में पड़ी
कितना कोमल मृदुल नाद कौवे की काँव-काँव का
अक्सर ऐसे मौक़ों पर लगता रहा है कि वह
यह में ध्यान रख कर अपने कंठ में काँव का स्वर भरता है
कि भोर की अलसाहट में आप कुछ और सोना चाहते हों, तो सो ही लें
आप जागने-जागने को हों, तो जग कर उठ ही लें
माताएँ इसी तरह बच्चों को जगाती हैं
इसी तरह नींद से उठाने के लिए पुकारते हैं पितर।
आज तो चाय बनाने में भी कोई गड़बड़ी नहीं हुई
जिस चम्मच से भर कर चाय की पत्ती डालता हूँ
वह सही जगह पर मिल भी गया
शकर भी सही पड़ी
न ज़्यादा न कम,
उतनी ही शकर, उतनी ही चायपत्ती, उतना ही दूध
जितना रोज़ होता है,
पर चाय में ही स्वाद कुछ अधिक लगा।
बाहर बेहद घना कोहरा था,
मन मे आशंका थी कि
कोहरे के कारण शायद
मुझे एयरपोर्ट पहुँचाने के लिए टैक्सी
वक़्त पर आ न पाए,
पर यह आश्वस्ति भी कि
उड़ानें ही समय पर कहाँ चल रही होंगी।
कुछ देर से ही सही
टैक्सी आई तो,
इतने घने कोहरे में
ड्राइवर गाड़ी कैसे चला पाएगा
कई कारें कोहरे के कारण सड़क के किनारे खड़ी
कर सो गये थे ड्रायवर, पार्किंग की बत्तियाँ जला कर
कोहरे में विलंब हुआ, इस सारे विलंब के भीतर से
समय पर एयरपोर्ट पहुँच गया
भीतर जाकर पाया कि विमान तो समय पर है
समय पर चलने वाला विमान थोड़े विलंब से ही चला
थोड़ा विलंब हुआ, थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ी
पर विमान में समय पर बैठ ही गया
अब सुस्ता लिया
थोड़ा विलंब हुआ, थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ी
पर यह बुद्धि मेरी बुद्धि में आई तो
कि अंत पर पहुँच कर
सब कुछ ठीक और समय पर हो सकता है।
थोड़ा विलंब हुआ
थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ी
इस विलंब में और प्रतीक्षा में
जो रस बसा था
वह बचा हुआ है।
- रचनाकार : राधावल्लभ त्रिपाठी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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