वह औरत आई और धीरे से
दरवाज़े का पर्दा उठा
भीतर खिल गई
कमरों के पार आख़िरी कमरे की
रोशन फाँक से
तब से मुझे घूर रही है
पर दीवार की वजह से
मुझसे दूर रही है
जिसके लिए, मैं बाहर आना चाहता हूँ
दौड़ता हुआ—आता हुआ
बार-बार उसी के पास
क्योंकि मकान के कोने-कोने में
उसकी आहटें महक रही हैं।
अँधेरे में सिसकारती
खिड़कियों पर शृंगार करती
कपड़े पछींटती-रोटियाँ सेंकती
देहरी पर बैठी इंतज़ार में दहक रही है
उड़कर बैठती निगाह के हर क्षण पर
अपने को हूबहू दुहराती हुई
वह बहुत दुहराई गई औरत है
पर हर मकान में पहली बार आती है
बूढ़ी माँग के तकिये पर अपने आँसू
सुखाती है।
जब भी मेरे घर का एकांत
उसके जिस्म को टोता है
दबे हाथों की मजबूरी बीच
आँगन का अँधेरा
बनबिलाव का मौसम रोता है।
हर करवट को काटते जीवाणु के
साथ भारी लग रही
खटमलों भरी चारपाई की रात
कान के पास भनकती रहती
मच्छरों में उसकी छोटी-छोटी
कितनी बात और
यही वह देह का जलता हुआ
आकाश है
जिससे लटके हुए साँप की पूँछ पकड़
कवि ऊपर चढ़ा था
टूटकर चौपाई की बाँहों में गिरकर
कविता की नरम छाँहों में खड़ा था।
- पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 57)
- संपादक : जीवन सिंह, केशव तिवारी
- रचनाकार : मानबहादुर सिंह
- प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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