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प्रतिरूप

pratirup

अपर्णा महांति

अपर्णा महांति

प्रतिरूप

अपर्णा महांति

और अधिकअपर्णा महांति

    पास नहीं हो इसीलिए न!

    कल्पना के सारे श्रेष्ठ रंग लगाकर

    इतने सुंदर दिख रहे हो आज!

    विरह की छेनी से ठीक से

    तराश-तराश कर

    तमाम अनावश्यक

    असुंदरता

    काट-छाँटकर

    नाप-तौलकर

    मिलन की अनन्य कला गढ़ देने-सा।

    कोणार्क की बोलती

    स्पंदित उस शिलामूर्ति-सी

    पहले नहीं देखी थी

    विच्छेद की यह माधुर्यमय भव्यता।

    मालूम जो नहीं था

    अनंत मिलन की यह

    मुग्ध समाहित लगन

    युग-युग बीतने पर भी

    नहीं जाती

    बीत नहीं जाती।

    तेरे चले जाने से

    मैं ज़रा भी व्यथित नहीं हूँ

    चुन-चुनकर तेरी चाहत के एकांत को

    देख, देख न!

    तेरे अनन्य प्रतिरूप

    अपने लिए बनाए हैं मैंने।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1989-90-91 (पृष्ठ 49)
    • संपादक : र. श. केलकर
    • रचनाकार : अपर्णा महांति
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1993

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