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प्रात-कली-सी खुली...

prat-kali-si khuli. . .

अनुवाद : श्रीमती आनंदी रमानाथन

एम. के. तंगवेल

एम. के. तंगवेल

प्रात-कली-सी खुली...

एम. के. तंगवेल

और अधिकएम. के. तंगवेल

    नन्हें नूपुर छम-छम करती आई थी,

    चूनरिया की बान दिखाती आई थी,

    सुंदर वेणी हिला-डुलाती आई थी,

    अबोध मन में भी तब मस्ती छाई थी!

    सुंदर जुगनू कभी पकड़ते थे हम,

    प्यारे अभिनय के खेल करते थे हम,

    चित्ताकर्षक कई रसीली चीजें आ—

    आकर्षित मुझको करने वह ला देती थी!

    चंदा मामा दिखा उसे बुलाता था,

    खेल उसी में, प्यार भी अपना बढ़ता था।

    झींगुर की झीनी बोली जब उठती थी,

    मधुर नींद में प्रबल भावना जगती थी।

    गोमुखी नदी की तरल धार में माताएँ,

    भक्ति-भाव ले करती होतीं पावन स्नान,

    पास रही अमराई में तब हम दोनों,

    दूल्हा-दुलहिन बन वरमाला पहनाते।

    लाल हो रहे बाल-करो से आप बनाए

    घरुए में आबाद किया था अपना घर,

    पका नहीं जो भात उसी का बाँटा लेकर

    खेल ख़त्म कर तोड़-फोड़ हम आते थे।

    बस्ता पुस्तक ले जाया करता था

    शाला में आना-जाना भी भाता था

    घर वाले भी सराहते थे ख़ुश होकर तब

    हो रही पढ़ाई औ' लिखाई अच्छी ही।

    मेलजोल औ' खेल-कूद के साथ हमारी

    प्रारंभिक शिक्षा शाला की ख़त्म हुई जब,

    हँसते-गाते, बाते करते ज्ञान बढ़ाते

    शाला की ऊँची कक्षा में पहुँच चुके थे।

    ऊँची कक्षा में पंडित जी लगे सिखाने

    कविताएँ विशिष्ट औ' माधुर्यपूर्ण

    किंतु नहीं कविता में जो रस घोलती

    नैन लड़ाती प्यारी मेरी आई थी।

    गूँज उठी शाला की घटी ऊब चला मैं

    काव्य-पाठ से, किंतु आई वह मेरी

    'चोर-छोहरी' औ' उसकी वह

    प्रीत पुरानी खिली याद में प्रात-कली-सी!

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 315)
    • रचनाकार : एम. के. तंगवेल
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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