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प्राइम टाइम की बहस में किसान

praa.im Taa.im kii bahas me.n kisaan

ओम नागर

ओम नागर

प्राइम टाइम की बहस में किसान

ओम नागर

और अधिकओम नागर

    कभी विज्ञापन में था हँसता हुआ

    गेहूँ की दो बालियों के बीच ख़ुश-सा

    इन दिनों प्राइम टाइम में छाया है किसान

    चार खिड़कियों में बैठे कथित हितैषी चेहरे

    किसान की सनेती के लगाए थे वाचालता के चार कंधे

    एंकर के तीखे सवालों पर

    सत्ता वाली खिड़की भड़भड़ा रही थी बे-बात

    अपनी नाकामियों का कीचड़

    दूसरी खिड़की में उछाल कर ख़ुश थी भीतर ही भीतर

    एक निवर्तमान खिड़की जिसको

    लंबे राज की असफलताओं का जवाब देते नहीं बना

    तीसरी लाल रंग की खिड़की

    सत्ता-गलियारे में किसान-मज़दूर के नाम खुलती रही सदा

    हर बार नया नारा गढ़ उतरती रही सड़क पर

    सत्ता वाले विधायक जी बहुत ऊँचे स्वर में बोल रहे थे—

    कभी राज में रहे हो तो जानों राज का मतलब!

    हमने जो किया किसी ने अब तक किया हो तो बताओ!

    क़र्ज़माफ़ी से पहुँचती हैं किसान के स्वाभिमान को ठेस!

    चौथी खिड़की में बैठा बेचारा किसान चुप ही रहा

    ईयर फ़ोन पर कपास लपेटकर बैठे था बहस में

    जैसे सबके कहने के बारे में पहले से जानता हो पुख़्ता

    एंकर ने यह कहकर किया बहस का पटाक्षेप—

    कि सबने बहुत कुछ किया ही है जब किसान के लिए

    कभी कभी

    तो फिर किसान और फंदे का रिश्ता टूटा क्यों नहीं

    यह यक्ष प्रश्न अब भी हवा में लटका है जस का तस

    डिबेट के बाद चारों खिड़कियाँ

    समृद्ध नगर के बड़े दरवाज़े में खुली हँसते-हँसते

    अपनी-अपनी खिड़कियों में क़ैद

    राजनीति के यह खेतिहर लोग पकड़े गए परदे के पीछे

    चाय की चुस्कियों के साथ एक-दूसरे को दे रहे थे

    बहुत अच्छा बोलने पर बधाई-शुभकामनाएँ

    कविता नहीं है यह

    किसान हुए बिना किसान पर कविता लिखना

    यूँ चर्चा करने से थोड़ा तो मुश्किल है ही।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ओम नागर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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